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________________ इन्द्रियों को सही दिशा बताओ १४६ "सेठानी, जल्दी क्या है ? दे दूंगी दवाई आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों या उसके बाद कभी किसी दिन भी दे दूंगी।" ___ "पर मैं इससे पहले ही मर गया तो फिर वह दवा मेरे किस काम आएगी ?" ___यही अवसर सेठानी चाहती थी। छूटते ही बोली- "आज आप यह क्या कह रहे हैं ? मृत्यु अभी कैसे आ सकती है ? आप सदा कहते हैं न कि अभी मेरी उम्र ही का है, धर्म-कर्म सब बाद में कर लगा। इसीलिये मैंने सोचा कि मृत्यु तो आपके पास अभी फटक ही नहीं सकती अतः दवाई किसी दिन भी दे दूंगी जल्दी क्या है आखिर ?" ___सेठानी की बात सुनकर सेठ की आँखें खुल गई। बोला-"मैं बड़ी भारी गलती कर रहा था सेठ नी ! सचमुच ही जीवन का कोई भरोसा नहीं है । मुझे स्वस्थ होते ही अब अपना चित परमात्मा के चिन्तन में लगाना है । मैं समझ गया हूँ कि जिस तरह रोग नाश के लिये औषधि की जरूरत है, उसी प्रकार जन्म-मरण का न श करने के लिए ईश्वर की आराधना करना भी जरूरी है। वह विना विलम्ब किये प्रारम्भ कर देना चाहिये अन्यथा मेरा यह शरीर रूपी पारस-पत्थर जो मुझे मिला है व्यर्थ हो जायेगा।" सेठानी पति की बात सुनकर आनन्दाथ बहाता हुई उठी और उसने उसी क्षण लाकर अपने पति को दवा दी। सेठ स्वस्थ होते ही दत्त-चित्त से ईश्वर के भजन-पूजन में लग गया। वस्तुतः हमें यह मनुष्य का चोला इसीलिये मिला है कि इसकी सहायता से हम अपने कर्म-बन्धनों को काटकर परमपद प्राप्त करें। किन्तु लोग इन्द्रिय सुखों के भोगों में यह बात सर्वथा भूल जाते हैं। उन्हें ऐसा लगता है मानो वे अनन्तकाल तक इसी स्थिति में रहेंगे और इसीलिये यहाँ भोगने के लिये हजारों प्रकार के साधन जुटाते हैं तथा धन से तिजोरियाँ भर लेते हैं। किन्तु उर्दू कवि जोक का कहना है : क्या यह दुनिया जिनमें कोशिश हो न दी के वास्ते । वास्ते वाँ के भी कुछ, या सब वहीं के वास्ते ॥ इस दुनियाँ में आकर परलोक के लिए भी कुछ करना चाहिए; यह नहीं कि यहाँ के लिए तो हम दिन-रात कोशिश करें और उधर की फिक्र बिल्कुल ही छोड़ दें। कमलवत भले ही आप गृहस्थ हैं, फिर भी धर्माराधन एवं आत्म-साधना कर सकते हैं । ससार में रहकर भी संसार से विरक्त और भोगों को भोगते हुए भी उनसे अलिप्त रह सकत हैं। साधना करने के लिए साधु बन जाना ही आवश्यक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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