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________________ १४४ आनन्द प्रवचन: तृतीय भाग भक्ष्य का ख्याल नहीं करता और सके कारण अपने शरीर की ही हानि नहीं अपितु बुद्धि का भी नाश कर देता है । आप लोग कहा भी करते हैं : जैसा अन जल खाइये, तँसा ही मन होय । जैसा पानी पीजिये, तसो बानी सोय || अर्थ आप समझ ही गये होंगे कि अन्न और जल शुद्ध ग्रहण किये जायें तो मन तथा वचन शुद्ध होते हैं और इनके अशुद्ध होने पर वे अशुद्ध तथा विकृत हो जाते हैं । यह सही है कि आहार के अभाव में शरीर टिक नहीं सकता । जीवन का निर्वाह के लिए आहार ग्रहण करना अनिवार्य है । किन्तु ध्यान रखने की बात यह है कि आहार नीति द्वारा कमाये हुए पैसे से लाया गया हो तथा वे पदार्थ स्वयं भी शुद्ध और सात्विक हों । संसार के त्यागी, तपस्वी एवं सन्तमुनिराज भी आहार करते हैं पर वे जिह्वा की लोलुपता के वशीभूत होकर कोई अखाद्य उदरस्थ नहीं क ते । केवल शरीर को टिकाये रखने के लिए शुद्ध वस्तुओं का उपयोग करते हैं । 1 किन्तु खेद की बात है कि आज के मानव ने आहार का असली प्रयोजन जोकि केवल शरीर - निर्वाह है उसे भुला दिया है तथा जिला की तृप्ति को ही मुख्य प्रयोजन मान लिया है। यही कारण है कि नाना प्रकार की सत्वहीन किन्तु जिह्वा को तृप्त करने वाली चीजों को भोजन में स्थान दिया जाता है । इतना ही नहीं, आज के अधिकांश व्यक्तियों ने माँस, मछली और अण्डे आदि जोकि हिंसा के प्रमाण हैं उन्हें भी अपने भोजन में सम्मिलित कर लिया । वे जिह्वा की लोलुपता के कारण यह जानने का भी प्रयत्न नहीं करते कि माँसाहार से कितनी हानियाँ उठानी पड़ती हैं । डॉक्टरों और वैद्यों का कथन है कि माँस प्रथम तो देर से पचता है दूसरे कफ बात, पित्त के विकार उत्पन्न करता है । रक्त-दोष और विशूचिका आदि को जन्म देता है । इसमें चीनी और नशास्ता का अंश मात्र भी न होने से मस्तिष्क की नसों को कमजोर बनाता है और इसके कारण मस्तिष्क और बुद्धि अपना कार्य बराबर नहीं करते । स्पष्ट है कि जब बुद्धि काम नहीं करेगी तो मनुष्य ज्ञन की प्राप्ति कैसे करेगा । माँस भक्षण करने वालों के हृदय में अत्यन्त निर्दयता, क्रू ता और कठोरता होती है । उनके हृदय की गति तीव्र हो जती है और श्वास-प्रश्वास तीव्रता से आते जाते हैं । इसलिए साधना और योगाभ्यास करने वाले व्यक्ति जो कि प्राणायाम को अत्यधिक महत्व देते हैं वे माँसाहार कदापि नहीं करते । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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