SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इन्द्रियों को सही दिशा बताओ १४३ अवलोकन प्रकट नहीं कर पाती वह बात, आंखें आसानी से बता देती हैं। मनुष्य की आंखों में बड़ी चमत्कारिक शक्ति होती है बे अन्तर के प्रत्येक भाव को बड़ी आसानी से ग्रहण कर लेती हैं । यथा-कोई लज्जाजनक बात होते ही वे झुक जाती हैं, आनन्द का अनुभव होने पर चमक उठती हैं, करूणा का भाव आते ही बरस पड़ती हैं और वही आंखें क्रोध का भाव आने पर जल उठती हैं। आंखों से ग्रहण किये हुए भाव का मन पर भी बड़ा भारी असर होता है। जैसे विषय-विकारों को प्रोत्साहित करने वाले नाटक सिनेमा, या नृत्य अदि देखने पर मन में तुरन्त विकार आता है उसी प्रकार महापुरुषों के चित्र देखने पर अथवा त्यागी सत्पुरुषों के दर्शन करने पर मन के विकार नष्ट होते हैं तथा आत्मा निर्मल बनती है। चारित्रवान सन्तों के दर्शन करने पर भी हृदय में पवित्रता की ज्योति जल उठती है तथा मन और बुद्धि परिष्कृप्त हो जाते हैं। सन्त तुलसीदास जी अपने मन से कहते हैं : मन इतनोई या तनु को परम फलु । सब अंग सुभग बिन्दुमाधव छबि तजि सुभाव, अवलोकु एक पलु ॥ अर्थात्-'हे मन ! इस शरीर का परम फल केवल इतना ही है कि नख से शिख तक सुन्दर अङ्गों वाले श्री बिन्दुमाधव जी की छवि का पल भर के लिये अपने चंचल स्वभाव को छोड़कर स्थिरता के साथ प्रेम से दर्शन कर ।' तो भाइयो, आँखों का उपयोग हमें इसी प्रकार सन्त-मुनिराजों के दर्शन करने में तथा मन को पवित्र बनाने वाले दृश्यों को देखने में करना चाहिये। तभी हमारी बुद्धि निर्मल होगी तथा मन ज्ञानार्जन करने में लग सकेगा। जिह्वा-इन्द्रिय तीसरी इन्द्रिय मानव की जिह्वा है। जिह्वा के द्वारा रस का अनुभव किया जाता है । मनुष्य जो कुछ भी खाता है उसके स्वाद का अनुभव जिह्वा करती है। वह यह नहीं देखती कि अमुक वस्तु उदर में जाकर लाभ पहुंचायेगी या हानि । उसे केवल अपना ही ख्याल रहता है । जिह्वा की लोलुपता के कारण अनेक व्यक्ति रोगों के शिकार हो जाते हैं और कभी-कभी तो उनके प्राणों पर भी आ बनती है। महात्मा कबीर ने इसलिये जिह्वा की भर्त्सना करते हुए कहा है : खट्टा मीठा चरपरा, जिह्वा सब रस लेय । चोरों कुतिया मिलि गई, पहरा किसका देय ॥ कहने का अभिप्राय यही है कि जीभ की लोलुपता के कारण मनुष्य भक्ष्या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy