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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
कहने का अभिप्राय यही है कि जो एक-एक इन्द्रियों के वश में होकर वे पशु-पक्षी भी जब मृत्यु को प्राप्त होते हैं तो पाँच-पाँच इन्द्रियों के वश में रहने वाले मनुष्य बार-बार मृत्यु के चंगुल में क्यों नहीं फंसेंगे ? अर्थात् अवश्य ही फंसेंगे ।
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इसलिये मुमुक्षु को चाहिये कि वह अपनी इन्द्रियों को अशुभ क्रियाओं में प्रवृत्त करके पापोपार्जन करने की बजाय शुभ क्रियाओं में लगाये जिससे पुण्य का उपार्जन हो सके और बंधे हुए कर्मों की निर्जरा हो ।
कर्णेन्द्रिय
हमारे पास कर्णेन्द्रिय है इसके द्वारा सुना जाता | पर सोचने की बात यह है कि इनसे क्या सुना जाय ? क्या सिनेमा के गाने ? या विकारों को प्रोत्साहन देने वाली अश्लील बातें नहीं, ऐसी बातों को सुनने से मन विषयों की और उन्मुख होता है तथा उसके कारण अशुभ कर्मों का बन्ध होता है । अतः अश्लील गाने या अश्लील बातें न सुनकर कामों से हमें धर्मोपदेश अथवा जिन-वचन सुनना चाहिये । संगीत सुनना बुरा नहीं है, न उसे सुनाना कहीं जित ही किया है किन्तु उसके माध्यम से हमें ईश्वर की प्रार्थना और उसके गुण-गाण सुनना चहिये ।
में
संगीत के द्वारा मानव जितनी सुगमता और शीघ्रता से अपने इष्ट तन्मय हो सकता है वैसा अन्य कोई भी दूसरा साधन नहीं है। योगी लोग आत्मा और परमात्मा की एकता के लिये घोर तपस्या करके अपने शरीर को 1. सुखा देते हैं वह एकता या अभिन्नता संगीत से सहज में ही प्राप्त हो सकती है | इसलिये कार्लाइल नामक एक पाश्चात्य विद्वान ने कहा है.
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Music is well said to be the speech of angels." संगीत को फरिश्तों की भाषा ठीक ही कहा है ।
हम भी प्रायः देखते हैं कि भक्त लोग संगीत के द्वारा ही अपने आपको ईश्वर से मिलाते हैं । आज संसार में जितने भक्त हुए हैं उनका अपने प्रभु की अर्चना का सबसे बड़ा साधन भजन-कीर्तन ही रहा है। सूरदास, तुलसीदास और मीरा आदि अनेक भक्तों के सुन्दर-सुन्दर पद्य आज घर-घर में गाये जाते हैं। लाखों व्यक्ति उनसे प्रभावित होते रहे हैं और आज भी होते हैं । इसलिये हमें अपने कानों से परमात्मा की प्रार्थना या आगामों की वाणी सुननी चाहिये, जिससे हमारा मन निर्मल हो सके । और हम स्वस्थ चित्त से ज्ञान-प्राप्ति कर सकें ।
चक्षु - इन्द्रिय
दूसरी इन्द्रिय हमें आँख के रूप में प्राप्त है । आँख शरीर का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और अनमोल अंग है । आँखे हृदय की तालिका हैं । जो बात वाणी
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