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________________ दीप से दीप जलाओ वय स्थविर - उसे कहेंगे जिसने जन्म लेने के पश्चात् साठ वर्ष की उम्र तक ज्ञान और अनुभव प्राप्त किया है । एक बात और है कि भले ही किसी व्यक्ति ने अधिक ज्ञान हासिल नहीं किया हो किन्तु साठ वर्ष की उम्र तक में उसे संसार में विभिन्न प्रकार के इतने अनुभव हो जाते हैं, दूसरे शब्दों में उसे अच्छी और बुरी सभी प्रकार की इतनी परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है कि बिना पढ़े भी उसे नाना प्रक र का ज्ञान अपने आप ही प्राप्त हो जाता है । आज के युवक अपनी थोड़ी सी शिक्षा के अहंकार में आकर अपने गुरुजनों की अथवा स्वयं अपने माता-पिता की भी भर्त्सना करने लगते हैं । स्पष्ट कहते हैं- "तुम क्या जानो इस विषय में ? हमने पढ़ी है यह बात ।" वे इस बात को भूल जाते हैं कि उन्होंने चार दिनों में किताबों से जो ज्ञान प्राप्त किया है उसे अनेक गुना अधिक ज्ञान उनके गुरुजनों ने प्रत्यक्ष में अपने अनुभवों में भोगकर प्राप्त कर लिया है । १३५ जिस प्रकार कोई भी कला केवल किताबों में पढ़कर नहीं सीखी जाती, उसका सही ज्ञान करने पर होता है, उसी प्रकार ज्ञान की किताबों में पढ़ लेने मात्र से पूर्णत्व प्राप्त नहीं कर पाता जब तक कि उसे जीवन में न उतारा जाय । इसलिये जहाँ युवावस्था में केवल किताबी ज्ञान होता है वहाँ वृद्धावस्था में अनुभवों का विशाल भण्डार ज्ञान के रूप में परिवर्तित हो जाता है । एक पाश्चात्य विद्वान ने कहा है --- "युवावस्था बहुत सुन्दर है, इसमें संदेह नहीं, पर जहाँ जीवन की गहनता की जांच होती है वहाँ यौवन का कोई महत्व नहीं रह जाता ।" - डास्टाएव्सकी तो युवावस्था जहाँ अनुभव शून्य और ज्ञान से कोरी होती है वहां वृद्धावस्था अनुभव-ज्ञान से बोझिल । इसी कारण कहा जाता है "ज्यों ज्यों भीजे कामरी, त्यों त्यों भारी होय ।" नाना प्रकार के कष्टों, संकटों और परेशानियों से गुजरने के बाद ही एक वृद्ध अपने ज्ञान कोष की वृद्धि कर पाता है । 'फ्रेंकलिन' नामक एक दार्शनिक ने बड़े सुन्दर शब्दों में बताया है कि आयु के अनुसार किस प्रकार मनुष्य में परिवर्तन होता है । उसने कहा है " At 20 years of age the will reigns ; at 30 the wit, at 40 the judgement." अर्थात् - बीस वर्ष की आयु में संकल्प शासन करता है, तीस वर्ष में बुद्धि और चालीस वर्ष मे विवेक । दार्शनिक का कथन यथार्थ है । बीस वर्ष की उम्र में युवक केवल विचार करता है और मंसूबे बाँधता है । क्रियात्मक कुछ भी नहीं कर पाता । किन्तु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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