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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
तीस वर्ष का होते-होते उसकी बुद्धि का विकास होता है तथा उसकी सहायता से वह प्रत्येक कार्य को सही ढंग से करने का प्रयत्न करने लगता है । पर इस उम्र में भी वह उचित अनुचित का पूर्णतया विभाजन नहीं कर पाता यह विभाजन वह चालीस वर्ष की उम्र के बाद कर पाता है जबकि उसका विवेक प्रत्येक बात में 'दूध का दूध और पानी का पानी' करने में समर्थ हो जाता है । तो इस कथन से स्पष्ट है कि चालीस वर्ष के पश्चात् साठ वर्ष की अवस्था तक व्यक्ति अपने अनुभव, ज्ञान और विवेक के बल पर वय स्थविर कहलाने लगता है और ऐसे स्थविर अन्य व्यक्ति को ज्ञान देने में समर्थ हो जाते हैं ।
दीक्षा स्थविर - जो भव्य प्राणी सांसारिक दुखों से भयभीत होकर दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं, अर्थात् साधुत्व अंगीकार कर लेते हैं । वे अपने संयम मार्ग पर बीस बर्ष तक चलने के पश्चात् दीक्षा स्थविर कहलाने की योग्यता हासिल कर लेते हैं । कोई प्रश्न कर सकता है कि दीक्षा ग्रहण कर लेने अर्थात् पंच महाव्रतों के पालन का प्रारम्भ कर देने के पश्चात् भी बीस वर्ष तक उन्हें स्थविर क्यों नहीं कहा जा सकता ?
इसका कारण यही है कि दीक्षा ग्रहण कर लेते ही साधना में वह दृढ़ता नहीं आ जाती और उसका ज्ञान इतना परिपक्व नहीं हो जाता कि वह औरों का भी पूर्णतया मार्ग-दर्शन कर सके । दीक्षा तो अनेक अल्पवय के बालक भी ग्रहण कर लेते हैं । अतिमुक्त कुमार ने मात्र आठ वर्ष की अवस्था में ही साधुत्व स्वीकार कर लिया था और साधु बन जाने के बाद भी वे बालकीड़ा किया करते थे ।
नाव तिरे रे !
उदाहरणस्वरूप एक दिन वर्षाकाल के पश्चात् अपने से बड़े संतों के साथ वे जंगल की ओर जाते हैं तथा लौटते समय बच्चों के स्वभावानुसार रेत की पाल बनाकर बहता हुआ पानी रोक देते हैं तथा उसमें अपना छोटा सा पात्र तैराकर खुश होते हैं और शोर मचाते हैं- 'मेरी नाव तिरे, मेरी नाव तिरे ।
तो स्वाभाविक है कि दीक्षा ले लेने पर भी ऐसे संत कदापि स्थविर कहला सकते । हाँ बीस वर्ष तक दीक्षा का पालन कर लेने के पश्च त् वे अवश्य ही नाना प्रकार के परीषद् सहकर तथा उच्च कोटि का ज्ञानार्जन करके इस लायक बनते हैं कि वे औरों का मार्ग-दर्शन कर सकें तथा स्थविर कहला सकें
सूत्र स्थविर - सूत्र स्थविर को ही ज्ञान स्थविर भी कहते हैं । स्थानांग सूत्र और 'समवायांग' इनके विषय में विस्तृत रूप से बताया जाता है कि जो
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