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________________ आनन्द प्रवचन: तृतीय भाग मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि जो भव्य प्राणी सदा स्वाध्याय करते हैं वे संसार की असारता को भली-भाँति समझ लेते हैं तथा अपने मन को इसी प्रकार उद्ब'धन देते हुये उसे विशुद्ध बनाये रखते हैं । और ऐसी आत्माएँ ही अन्त में मुक्ति-लाभ करती हैं । स्वाध्याय के प्रकार १२६ अब हमें यह देखना है कि स्वाध्याय कौन सी क्रियाओं के करने से अपने सम्पूर्ण अर्थ को साबित करता है ? स्वाध्याय केवल ग्रन्थों के पुनः-पुन: पढ़ लेने मात्र को ही नहीं कहते हैं । उसके भी पाँच प्रकार के भेद हैं । वे इस प्रकार हैं - वाचना, पृच्छना पर्यटना, अनुप्रक्षा तथा धर्मकथा | वामणा - वायणा का अर्थ है - शास्त्र की वाचनी लेना या पाठ लेना । हम अपने आप कितना भी अध्ययन करें पर विषय को ज्ञानवानों के समझा ए बिना कदापि उसे उसके सही रूप में नहीं समझ सकते । इसलिए विनय पूर्वक गुरु से पाठ लेना चाहिए। वही वायणा अर्थात् वाचनी लेना कहा जाता है । पृच्छना - यह स्वाध्याय का दूसरा भेद है । गुरु से पाठ ले भी लिया किन्तु कहीं पर कोई बात समझ में नहीं आई और किसी प्रकार की शंका रह गई तो पाठ लेने का कोई लाभ नहीं होगा, उलटे शंका का शल्य चित्त को भ्रमित कर देगा या उसमें किसी प्रकार की अश्रद्धा का जन्म हो जाएगा । इसलिए लिए हुए पाठ में कहीं भी कोई बात समझ में आने से रह गई हो अथवा किसी प्रकार का सन्देह जागृत हुआ हो तो मन ही मन में तर्क-वितर्क करने की अपेक्षा उसी समय अपने गुरु अथवा आचार्य से शंका का समाधान कर लेना चाहिये । इसी को पृच्छना या पूछना कहते हैं । पर्यटना- - स्वाध्याय का तीसरा भेद पर्यटना है । पर्यटना का अर्थ है लिए हुए पाठ की बारम्बार पुनरावृत्ति करना । आज के युग में हमारी बुद्धि ऐसी नहीं है कि किसी बात को हमने एक बार पढ़ा या सुना तो वह याद हो गई और उसे फिर कभी भूलें ही नहीं । आप महाजन हैं, महाजनों को सदा हिसाब-किताब रखना पड़ता है और बहखानों में रकमें जोड़नी, घटानी व बढ़ानी पड़ती हैं। इसके लिए आप बचपन में कितने पहाड़े, अद्धे, पौने, सवाये, ड्योढ़े और ढाये रटते हैं ? आपके माता-पिता आपके सीखे हुए अन्य विषयों पर अधिक ध्यान नहीं देते । किन्तु पहाड़े और हिसाब-किताब में तनिक भी गलतियाँ नहीं रहने देते । इसी प्रकार अंग्रेजी पढ़ते समय आपको एक-एक शब्द का मायना घन्टों याद करना पड़ता है । संस्कृत भाषा भी सरल नहीं है, जब तक शब्दों के रूप और धातुएँ आप खूब याद नहीं कर लेते हैं तब तक उसमें भी प्रगति नहीं हो सकती । इस प्रकार ये सांसारिक लाभों को प्रदान करने वाली वस्तुएँ भी जब आप रटते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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