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________________ स्वाध्याय में बड़ी भारी शक्ति छिपी हुई है इसीलिए इसे महान तप माना गया है । आज हम देखते हैं, तप का अर्थ लोग केवल उपवास करने से ही लेते हैं और तप के नाम पर एक, दो, आठ, दस, महीने और उससे भी अधिक दिन लगातार उपवास करके अपने आपको तपस्वी मान लेते हैं । इसके अलावा अनेक साधु-महात्मा पंचाग्नि तप करके अपने आपको घोर तपस्वी साबित करते हैं । किन्तु हमें भली-भांति समझ लेना चहिए कि केवल शरीर को भूखा रखकर या उसे अग्नि से तपाकर ही हम तप कर लेने के उद्देश्य को पूर्ण नहीं मान सकते । यद्यपि इस प्रकार के तपों को भी मैं व्यर्थ नहीं कहता अगर समभाव तथा निरहंकार होकर करने पर ये सभी अपना-अपना फल अवश्य प्रदान करते हैं तथा यह भी उत्तम है, किन्तु सबसे बड़ा तप और सर्वोत्तम फल देने वाला तप स्वाध्याय ही है । स्वाध्याय : परम तप १२५ धर्मग्रन्थों का तथा आगमों का स्वाध्याय करने से बुद्धि निर्मल होती है, ज्ञान की वृद्धि होती है तथा वस्तु तत्वों की ज नकारी के साथ-साथ संसार की असारता और भोगों की अनिष्टता का मन को भान होता है । इसके परिणाम स्वरूप प्राणी संसार में रहकर भी उससे अलिप्त रहता है तथा भोगों को भोगता हुआ भी उनमें अनासक्त भाव रखकर कर्म - बन्धनों से बचा रहता है । ऐसा जीव प्रतिक्षण सांसारिक सुखों का त्याग करने अथवा मृत्यु का स्वागत करने के लिये तैयार रहता है । वह अपने मन को प्रतिपल यही उद्बोधन देता रहता है - अति चंचल ये भोग, जगतहूं चंचल तेसो । तू क्यों भटकत मूढ़ जीव संसारी जैसो ॥ आशा फाँसी काट चित्त निर्मल ह्न रे । साधन साधि समाधि परम निज पद को ह्वरे ॥ करिरे प्रपीत मेरे वचन दुरि रे तू इह ओर को । छिन यहै- यहै दिनहू भलो निज राखे कहु मोर को ।। मन को कितनी सुन्दर चेतावनी दी गई है कि - " जैसा यह संसार चंचल अथवा अस्थिर है, इसी प्रकार संसार के भोगोपभोग भी अस्थिर हैं अतः मेरे मूढ़ मन; तू क्यों इन सब में भूला हुआ भटक रहा है ? मेरी तो तुझे यही सीख है कि तू अभिलाषाओं के फंदे से छूटकर अपने आप को निर्मल बना तथा समाधि भाव रखता हुआ आत्म-साधना करके अपने निज-स्वरूप को और दूसरे शब्दों में परमात्म पद को प्राप्त कर ।" Jain Education International पुनः कहा है- "हे मन ! तू मेरे वचनों पर विश्वास कर कि यह संसार एक दिवस के समान है जो प्रतिपल अस्त होने की ओर बढ़ता है । इसलिए तू इससे विमुख होगा ।" For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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