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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
शब्दों में कर कंकणवत् हो सकते हैं क्योंकि आगमों में तेरी ही अद्वितीय शक्ति का वर्णन है ।"
कहा भी है :
'सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यंध एव सः ।' समान हैं, जिसे शास्त्र का ज्ञान नहीं वह
शास्त्र सबके लिए नेत्र के
अन्धा है ।
इसीलिए कवि ने अन्त में कहा है- हे जिनवाणी माता ! मैं और तो कुछ नहीं जानता, बस तेरी शरण में आ गया हूँ । अत: अब तू ही मेरे अन्तमनस में से अज्ञानान्धकार को दूर कर तथा ज्ञान की ज्योति जलाकर इसमें सुमति की स्थापना कर ।"
महातप स्वाध्याय
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बन्धुओ, जिनवाणी अथवा आगम के वचन ही आत्मा का हित करने वाले हैं | आगमों का पुनः पुनः पठन या स्वाध्याय ज्ञान की अभिवृद्धि करता है तथा दानादि अन्य समस्त शुभ क्रियाओं की अपेक्षा अनेक गुना अधिक फल प्रदान करता है । कहा भी है :
"कोटिदानादपि श्रेष्ठं स्वाध्यायस्य फलं यतः ।"
मनोयोगपूर्वक उत्तम ग्रन्थों का स्वाध्याय एवं चिंतन-मनन करोड़ों की सम्पत्ति का दान करने की अपेक्षा भी अधिक उत्तम है ।
वस्तुतः स्वाध्याय अत्यन्त शुभ- भावनाओं के साथ मनोयोगपूर्वक किया जाना चाहिये । अन्यथा वह केवल तोता रटन्त भी कहलायेगा तथा आत्मा में रंचमात्र भी शुद्धता नहीं ला सकेगा। क्योंकि :
" पठनं मननविहीनं पचनविहीनेन तुल्यमशनेन ।”
चिंतन और मनन रहित वाचन ऐसा ही है, जैसा कि पाचन क्रिया से रहित खाया हुआ भोजन ।
मानव जो भी आहार करता है वह पच जाने पर ही ऐसा रस बनाता है जो कि शरीर को पुष्ट करे । पाचनशक्ति के अभाव में उदरस्थ की हुई प्रत्येक वस्तु शरीर को लाभ के बदले हानि पहुँचाती है । इसी प्रकार पढ़ा जाने वाला विषय आहार के समान है और उस पर चिंतन-मनन करना पाचन क्रिया कहला सकती है । इस क्रिया के अभाव में पठित विषय सारहीन और निरर्थक साबित होता है । और समय की बर्बादी अथवा हानि ही पहले पड़ती है ।
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इसीलिए स्वाध्याय करना जिस प्रकार आत्मा को खुराक देने के समान अनिवार्य है, उसी प्रकार उस पर चिंतन-मनन करना उस खुराक को पचाकर ऐसा रस बनाना है, जिससे आत्मा शुद्ध और दृढ़ बन सके ।
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