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________________ स्वाध्याय : परम तप हैं, बार-बार दोहराते हैं तो फिर मुक्ति प्रदान करने वाले आध्यात्मिक विषयों को समझने वाले आगमों और शास्त्रों को बिना बार-बार दोहराये, बिना उन पर पुनः पुनः चिन्तन मनन किये कैसे आत्मा को निर्मल बना सकते हैं ? उन्हें भी बार-बार दोहराना आवश्यक है और इसी को पर्यटना कहते हैं । अनुप्रेक्षा -- यह स्वाध्याय का चौथा अंग है। बार-बार पर्यटना करके ज्ञान की जो बातें याद की जाती हैं उन पर गम्भीर विचार करना और उन पर नाना प्रकार से मनन करना अनुप्रेक्षा कहलाता है। बिना विचार किये और मनन किये केवल शब्दों और वाक्यों को याद कर लेना ही काफी नहीं होता, जब तक कि उन्हें भावनाओं में रमा नहीं लिया जाये । जब आगमों की शिक्षाएँ हमारे विचारों में, भावनाओं में और हृदय में रम जाती हैं तभी उनका सच्चा लाभ आचरण के द्वारा उठाया जाता है । १२७ धर्मकथा -- यह स्वाध्याय का पाँचवाँ और अन्तिम अंग है । जब पूर्व के चारों अंगों या सीढ़ियों को व्यक्ति सफलता पूर्वक पार कर लेता है तब वह धर्मकथा करने लायक बन सकता है । धर्मकथा में व्याख्यान, उपदेश या प्रवचन कुछ भी कहा जाय, सभी शामिल हो जाते हैं । किन्तु धर्मोपदेश देना सहज नहीं है, अत्यन्त कठिन कार्य है । उपदेश देने वाले के सामने अनेक प्रकार की कठिनाइयां आती हैं । प्रथम तो आध्यात्मिक विषयों को व्यवस्थित ढंग से जनता के सामने रखना, उसे सरल से सरल ढंग से समझना, श्रोताओं के द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देना तथा विविध प्रकार की शंकाओं का निवारण करना, यह सब धर्मकथा करने वाले के लिए आवश्यक है, दूसरे अपने विचारों को प्रभावोत्पादक रूप में प्रगट करना उससे से भी अधिक आवश्यक या अनिवार्य है । क्यों के अच्छी से अच्छी और सत्य बात को भी अगर लोगों के सामने उत्तम तरीके से न रखी जाय तो उसका उतना प्रभाव लोगों पर नहीं पड़ता जितना साधारण बात को भी प्रभावोत्पादन तरीके से रखी जाने पर पड़ता है । इसलिये धर्मकथा करने वाले को स्वाध्याय के पूर्व वर्णित चारों अंगों में पूर्ण परिपक्वता हासिल करके ही धमंकथा पर आना चाहिए । वैसे देखा जाये तो धर्मोपदेश करना स्वाध्याय के अन्य सभी अंगों की अपेक्षा अनेक गुणा अधिक महत्वपूर्ण है । इसके द्वारा अनन्त कर्मों की निर्जरा होती है । क्योंकि जहाँ स्वाध्याय के चार अंगों से केवल अपना ही लाभ होता है वहाँ धर्मोपदेश से असंख्य अन्य व्यक्तियों को लाभ हो सकता है । Jain Education International राजा परदेशी जिसके हाथ सदा खून से सने रहते थे. एक दिन के धर्मोपदेश सुनने से बदल गया, छः व्यक्तियों की हत्यायें रोज करने वाला - अर्जुनमाली धर्मोपदेश से ही हत्याएँ करना छोड़कर मुनि हो गया और For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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