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असार संसार
दिवस के प्रारम्भ और अत का यह क्रम जिस प्रकार अनादिकाल से चला आ रहा है, उसी प्रकार मनुष्य शरीर के जन्म और मरण का क्रम भी सदा से चलता आया है। इस क्रम को संसार का कोई भी महापुरुष, महाराजा चक्रवर्ती या तीर्थकर भंग नहीं कर सका, सभी को इसी क्रम से यह संसार छोड़ना पड़ा है ।
किन्तु जिन महामानवों ने यह समझ लिया कि"शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम् ।"
सभी धर्म कर्मों के लिये शरीर ही सबसे बड़ा साधन है ।
ऐसा समझ लेने वाले अपने शरीर का लाभ उठाकर निश्शंक मृत्यु का आलिंगन करते हैं, पर मोह-माया में फँसे रह जाते हैं वे अन्त समय के निकट आते जाने पर पश्चात्ताप करते हुए चेतने का प्रयत्न करते हैं किन्तु शरीर के अशक्त हो जाने से तथा इन्द्रियों के क्षीण हो जाने के कारण अपने | उद्देश्य में सफल नहीं हो पाते । वे सोचते ही रहते हैं
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दीखत,
मन के मन ही माँहि मनोरथ वृद्ध भये निज अंगन में नाश भयो वह यौवन हू विद्याह्न गई बाँझ, बूझबारे नहि दौरो आवत काल, कोप कर दसनन पोसत । कहं नहिं पूजे प्रीति सों चक्रपाणि प्रभु के चरण । भत्र बँधन काटे कौन अब ? अजहुँ गहू रे हरि शरण । किन्तु ऐसा सोचने से फिर क्या लाभ होता है जब समय निकल चुकता है । समय रहते तो वह मोह के प्रबल उदय से नेत्रवान होते हुए भी अन्धा बना रहता है, कान होते हुए भी बहरा और चेतन होते हुए भी जड़ के समान निष्क्रिय रहता है । दिन-रात भोग-विलास में रत रहता है नना प्रकार के साधन जुटाने में न्याय-अन्याय, सत्य-असत्य, तथा औचित्य - अनौचित्य का भी ध्यान नहीं रखता ।
तथा उसके लिये
कर्त्तव्य - अकर्त्तव्य
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सब
अब ।
औरों के प्रति विश्वासघात करके अर्थ का उपार्जन करता है, असत्य भाषण, छलकपट, चोरी और हिंसा करके ऐश्वर्य की वृद्धि करता है । केवल एक कार्य वह नहीं करता, और वह है धर्माराधन । उसको अपनी वृद्धावस्था में करने के लिये रख छोड़ता है । सोचता है जब बुढ़ापा आ जाएगा तब धर्माचरण कर लेंगे। इतना ही नहीं वह तो यहाँ तक विचार करता है कि यदि इस जीवन का अन्त अचानक आ गया तब भी क्या हानि है ? आत्मा तो नष्ट होने वाली नहीं है । यह अजर-अमर और अविनाशी है अतः जब पुनर्जन्म होगा तब भी धर्म का साधन कर लेंगे ।
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