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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
___ जो भव्य प्राणी होते हैं उन्हें संसार में इसी प्रकार छटपटाहट होती है और जब वे संसार को असार समझ लेते हैं तभी उससे अशक्ति हटाकर ज्ञानाराधन में जुटते हैं। ज्ञान प्राप्त करना आत्मसाधना का पहला कदम है। ज्ञान के अभाव में आत्मा के हित के लिये की गई कोई भी क्रिया सफल नहीं हो पाती । क्योंकि ज्ञान ऐसा आत्मिक प्रकाश है, जिसके कारण अज्ञान और मिथ्यात्व का अन्धकार नहीं टिकता तथा प्राणि को सच्ची वस्तु-स्थिति की जानकारी होती है। ___ हमारा आज का विषय इसी बात को लेकर है कि संसार को असार समझें तो ज्ञान की प्राप्ति हो सकी है। हमें इसका शाब्दिक अर्थ नहीं लेना है कि संसार को असार कह दिया तो ज्ञान हासिल हो जाएगा। नहीं, इसका भावार्थ यह है कि संसार को जब हम असार समझ लगे तो हमारी प्रवृत्तियां इसकी ओर से हटकर आत्म-उत्थान की ओर मुड़ जायेंगी । अर्थात् हमारा ध्यान पर से हटकर 'स्व' की ओर चला जाएगा तथा 'स्व' की शक्ति और असाधारण गुणों को समझने के लिये हम ज्ञान प्राप्त करने की लालसा बढ़ायेगे। आत्म-चिंतन - बंधुओ, आपकी समझ में आ गया होगा कि संसार को असार समझ लेने पर हमारी दृष्टि बाह्य-पदार्थों से हटकर अन्तर की ओर उन्मुख हो सकती है। पर अब हमें यह देखना है कि आत्माभिमुख होकर हमें किस प्रकार चिन्तन करना है तथा उसे किस प्रकार अपने आचरण में उतारना है ?
पूर्ण एकान्त और शांत वातावरण में बैठकर सर्वप्रथम हमें यही सोचना चाहिए कि यह देह क्षणभंगुर है, प्रतिपल परिवर्तित होती रहती है । बाल्यावस्था के पश्चात् युवावस्था और उसके पश्चात् वृद्धावस्था आती है । हमारे न चाहने पर भी ये अवस्थाएँ शरीर में स्वयं ही स्थान लेती रहती हैं । शैशवावस्था में शिशु की शारीरिक शक्ति अत्यल्प होती है किन्तु ज्यों-ज्यों वह कुमारावस्था और युवावस्था की ओर बढ़ता है, उसकी शक्ति ऊषाकाल के सूर्य के समान बढ़ती जाती है । और जिस प्रकार सूर्य का तेज मध्यान्ह काल तक क्रमशः बढ़ता हुआ प्रखरतम हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य की शक्ति, उसका शारीरिक सौन्दर्य और तेज अपनी चरम सीमा या पूर्णता को प्राप्त होता है।
किन्तु मध्याह्न काल के पश्चात् ही सूर्य का तेज जिस प्रकार क्षीण होता चला जाता है और सांयकाल तक वह अस्त हो जाता है, उसी प्रकार युवावस्था के पश्चात् शरीर की शक्ति, कांति और तेज भी क्रमशः घटता जाता है और एक दिन पूर्णतया नष्ट हो जाता है ।
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