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________________ असार संसार ११३ इसलिये कविता में कहा है - हे भव्य जीवो! यह संसार स्वप्न के समान है। जिस प्रकार बिजली क्षणभर के लिये चमककर पुनः लुप्त हो जाती है, उसी प्रकार संसार की समस्त वस्तुएँ और शरीर भी अल्पकाल में ही नष्ट हो जाते हैं । एक हमारी आखों देखी सत्य घटना है - जब हम रोपड़ (पंजाब) में थे। एक श्रावक अच्छा-भला अर्थात् बिल्कुल स्वस्थ था, व्याख्यान सुनने के लिये आया। उसने सामायिक नहीं लो और माला फेरने लगा। उसी समय उसकी तबीयत खराब हो गई । लोगों ने हमसे यह बताया तो हमने स्थानक में पं० श्री ज्ञानमुनि जी महाराज के साथ जाकर उसे मांगलिक मन्त्र-श्रवण कराया। पर देखते-देखते ही उसी समय उसके प्राण पखेरू देह छोड़कर चल दिये। इसलिये कवि ने जीवन को बिजली की आभा के समान माना है । आगे कहा है-पेड़ पर जब नवीन पत्ते आते हैं, कितने कोमल और कमनीय लगते हैं किन्तु अल्पकाल में ही वे जीर्ण और पीले पड़ जाते हैं फिर अधिक समय नहीं टिकते । अगला उदाहरण संसार के अस्थायीपन का दिया है कि हाथी के कान सदा चंचल अर्थात् हिलते-डुलते रहते हैं, तथा सूर्य के ऊपर बादलों की आई हुई छाया भी अधिक देर नहीं रह पाती, इसी प्रकार संसार की स्थिति है जो स्थायी नहीं रहती । इसी के लिये संध्या के उजेले, इन्द्र धनुष और पानी की लहर का भी दृष्टान्त दिया है तथा कहा है कि संसार पानी के बुलबुले के समान है। ___इन सभी उदाहरणों से आशय यही है कि संसार क्षणिक है, अशाश्वत और अस्थिर है । अतः इसके प्रति मोह-माया रखना नासमझी है सांसारिक पदार्थों का कितना भी भोग किया जाये उसे तृप्ति नहीं होती। अपितु लालसाएँ बढ़ती ही जाती हैं। इसीलिये महापुरुष इन्हें समाप्त करने के प्रयत्न में रहते हैं। एक उर्दू कवि ने भी तंग होकर कहा है भरे हुये हैं हजारों अरमाँ, फिर उसपं है हसरतों की हसरत कहाँ निकल जाऊँ या इलाही, मैं दिल की बसअत से तंग होकर । -दाग ___ क्या कहा है शायर ने ? वह कहता है-इस दिल में हजारों अरमान भरे हुए हैं और उनके पूरे होते जाने पर भी जो पूरे नहीं हो रहे हैं उनके लिये हसरत बनी रहती है अर्थात् खेद होता रहता है। दिल को इस हालत से परेशान हुआ मैं, हे भगवान् ! कहाँ-कहाँ जाऊँ ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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