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________________ ११२ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग आत्मा में असंख्य शक्ति और सद्गुण छिपे हुए हैं। अधिक क्या कहा जाय तीर्थंकरों और सर्वज्ञों की आत्मा में जितनी शक्तियां और विशेषताएँ थीं उतनी ही आज हमारी आत्मा में हैं. रंच-मात्र भी न्यूनता नहीं है । कमी केवल उन्हें पहचानने की और उनका उपयोग करने की है । पर मानव यही नहीं कर पाता है तथा उसके कारण बाद में पश्चात्ताप करता है ऐसा पश्चात्ताप करने वाले के साथ किस की सहानुभूति हो सकती है ? लोग यही कहते हैं-- करता था तो क्यों किया, अब करि क्यों पछताय । बोवे पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय ? तो बंधुओं, मानव इस संसार के प्रलोभनों में फंसकर अपने आपको भूल जाता है और सब कार्य उलटे ही करने लगता है । अर्थात् पर पदार्थ जोकि नष्ट होने वाले हैं उनकी प्राप्ति और योग में लगा रहता है, किन्तु आत्मिक गुण जो शाश्वत सुख प्रदान करने वाले हैं उनकी उपेक्षा करता हुआ कर्म बंधन बांधता चला जाता है । वह भूल जाता है कि यह संसार अर्थात् इसमें प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली समस्त वस्तुएँ नष्ट होने वाली हैं । संस्कृत में कहा भी है-- यद् दृष्टं तन्नष्टम् ।' आँखों से देखी जाने वाली सब वस्तुएं नाशवान हैं। अभिप्राय यही है कि जिस प्रकार स्वप्न आता है और वह तुरन्त नष्ट हो जाता है उसी प्रकार यह संसार भी है। कविकुल भूषण तिलोक ऋषिजी महाराज का एक सारगभित पद्य भी इसी आशय को स्पष्ट करता - यह संसार स्वपन सो है जन, जैसो है बिजली से सबकारो। जीरण पत्र कान गज को पुनि, बादल छाया संध्या रो उजारो॥ इन्द्र धनुष्य ध्वजा सम चंचल, अंबु की लहर प्रपोट विचारो। कहत तिलोक यो रीत खलक की, धार सुपंथ के आतम तारो॥ पद्य की भाषा अत्यन्त सरल और सोधी है किन्तु अन्तःकरण को भिगो देती है। वास्तव में जो महापुरुष होते हैं वे अपने काव्य या कविता को विद्वत्ता को दृष्टि से नहीं लिखते। वे यह नहीं चाहते कि लोग उनके शब्दाडंबरों की सराहना करें और ऊँचे ऊँचे शब्दों तथा अलंकारों को देखकर उनके पाडित्य की प्रशंसा करें। वे केवल यह चाहते है कि व्यक्ति उनके भाव को समझें तथा भाषा को गहनता में न फँसकर कहो हुई बातों को हृदयंगम करें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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