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________________ असार संसार इस प्रकार यह संसार दुखों के समूह के अलावा और कुछ भी नहीं है । जैसा कि कहा जाता है "संसारो दु:खानामेकमास्पदम् " संसार ही दुःखों का एकमात्र स्थान है । संसार में दुःख ही दुःख है, सुख तो केवल कल्पनिक है । इसीलिये एक उर्दू भाषा के कवि ने कहा है -- बेवफा है यह जमाना, दिल किसी से ना लगाना । गर है तू कुछ सयाना, दिल किसी से ना लगाना ॥ जमाना यानी संसार । यह संसार कैसा है ? बेवफा ! अर्थात् विश्वास करने लायक नहीं है क्योंकि क्षणिक है । जो क्षणिक हो उसका विश्वास क्या करना ? विश्वास करने से लाभ भी क्या है जबकि हर वस्तु, जिस पर मोह रखा जाय, नष्ट हो जाती है या उसका वियोग हो जाता है । अत: तुझमें समझदारी है तो किसी के भी मोह में मत फँस, किसी से भी दिन मत लगा । आगे का पद्य हैजिससे तू दिल लगाय, सदमें बहुत उठाया । सोचा न कुछ तू जाना, अफसोस कहा न माना ।। -- १०६ 'संसार की वस्तुओं पर तूने आसक्ति रखी और संबंधियों पर मोह रखा, उसका परिणाम क्या हुआ ? केवल यही तो कि अनेकानेक दुःख उठाए और परेशानियों में पड़ा रहा । तूने न तो स्वयं ही कुछ सोचा-समझा और न ही संत महात्माओं के कथन को माना । वे सदा अपने और अन्य प्राणियों के मन को चेतावनी देते हुए कहते रहे : Jain Education International दुःखाङ्गारकतीव्र: संसारोऽयं महानसो गहनः । विषयामृत लालस-मानस मार्जार ! मा निपत ॥ अर्थात् – 'यह संसार दुखरूपी अंगारों से धधकता हुआ एक विकट रसोई घर है । हे मन रूपी मार्जार ! तू विषय-रूपी अमृत की लालसा में फँसकर उसमें मत कूद पड़ना ।' । महापुरुषों की यह चेतावनी यथार्थ है संसार के प्राणी सुख प्राप्ति की अभिलाषा से प्रेरित होकर ऐसी प्रवृत्तियाँ करते हैं जो उनकी समस्त उच्च आकांक्षाओं पर पानी फेर देती हैं वे यही नहीं समझ पाते कि सच्चे सुख का स्वरूप क्या है अपितु, क्षणिक और झूठे सुखाभास में ही सुख की कल्पना कर लेते हैं । सच्चा सुख विषयों में आश्रित नहीं होता, वह आत्म श्रित होता है । पर पदार्थों का संयोग अस्थायी होता है अतः उनसे प्राप्त होने वाला सुख भी स्थायी और परिपूर्ण नहीं हो सकता । वास्तविक सुख तो वही है जो बिना For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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