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________________ ११० आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग किसी के संयोग से केवल अपनी आत्मा से ही प्राप्त होता है । किन्तु मनुष्य इस बात को नहीं मानता और परिणाम क्या होता है अक्ल को भी हटादी, खूबियां भी सब मिटावी । उस वक्त हुआ पछताना, अफसोस कहा न माना ।। बेवफा है यह जमाना! कवि कहता है-'अरे नादान ! तूने तो अपनी अक्ल का ही दिवाला निकाल दिया । कम से कम महापुरुषों की शिक्षा को मानकर तो सही मार्ग अपनाता। सुबह का भूला शाम को घर आ जाय तब भी उसे भूला हुआ नहीं मानते। चन्द्रगुप्त और चाणक्य जैसा मूर्ख है सम्राट चन्द्रगुप्त और चाणक्य दोनों ही बुद्धिमान थे और फिर चाणक्य को कूटनीति का तो पार ही नहीं था किन्तु भूल उनसे भी हो गई कि उन्होंने 'नंद' को जीतने के लिये सीधा ही पाटलीपुत्र पर आक्रमण कर दिया । परिणामस्वरूप उन्हें मात खानी पड़ी और दोनों ही जंगलों में मारे-मारे फिरने लगे। __ भूख-प्यास से व्याकुल वे संयोगवश जंगल में बनी हुई एक झोंपड़ी पर जा पहुंचे। उसमें एक वृद्धा रहती थी। धन-से की दृष्टि से वह दरिद्र थी किन्तु उसका हृदय अत्यन्त विशाल था और अतिथियों के प्रति आदर से भरा हुआ था। बुढ़िया ने ज्यों ही दो अतिथियों को द्वार पर देखा हर्ष से पागल हो गई और उन्हें बड़े सम्मान से अन्दर बुला लाई । ठंडा जल पिलाया और बैठने के लिये टूटी खाट बिछा दी । वह नहीं जानती थी कि उसकी झोंपड़ी में स्वयं राजा चन्द्रगुप्त और उनके बुद्धिमान मन्त्री चाणक्य आए हैं । वह तो उन्हें केवल अतिथि मानकर उनकी सेवा-सुश्रूषा में लग गई। ___सहजभाव से वृद्धा बोली-'बेटा ! तुम लोग बहुत ही थके हुए और परेशान नजर आ रहे हो । तनिक विश्राम करो जब तक मैं खिचड़ी बनाती हूँ, उसे खाकर जल पीना।" सायंकाल का समय था अतः वृद्धा ने उसी झोंपड़ी के एक कोने में बने चूल्हे को जलाया और उस पर खिचड़ी बनने के लिये चढ़ा दी। कुछ ही देर बाद उसका लड़का खेत से लौटा और अपनी मां से बोला-"जल्दी से कुछ खाने को दे ! बड़ी भूख लगी है।" ___माँ और तो क्या परोसती, खिचड़ी करीब-करीब तैयार हो गई थी अतः उसने जल्दी से वही एक थाली में परोस दी और थाली भूखे पुत्र के सामने सरका दी। पुत्र ने आव देखा न ताव, एकदम गरम खिचड़ी में अपना हाथ डाल दिया और तुरन्त ही जोर से चीख उठा। "अरे क्या हुआ ?” बुढ़िया ने घबराकर बेटे से पूछा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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