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________________ असार संसार १०७ राजा ने कपिल की सारी बात सुनी और उसकी दरिद्रावस्था पर दश करके जो भी इच्छा हो माँगने के लिये कह दिया तथा इस बात पर सोचने के लिये अपनी वाटिका में भेज दिया। कपिल ने सोचना शुरू किया और दो मासे स्वर्ण से बढ़ते-बढ़ते एक करोड़ स्वर्णमुद्राओं को लेने का विचार करने लगा। किन्तु इसी क्षण उसकी बुद्धि ने पलटा खाया और वह मोचने लगा-- 'वाहरी तृष्णा, इसकी तो तृप्ति होती ही नहीं, ऐसा लगता है कि-- कसिणंपि जो इमं लोयं: पडिपुण्णं बलेज्ज इक्कस्म । तेणावि से ण संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया ॥ --उत्तराध्ययन सूत्र ८-१६ अर्थात्-धन-धान्य से भरा हमा सम्पूर्ण लोक भी यदि कोई किसी को दे देवे, इससे भी लोभी जीव को संतोष नहीं हो सकता। आत्मा की तृप्ति होनी अत्यन्त कठिन है। ऐसा विचार आते ही उन्हें अपनी भूल मालम हो गई कि दो मासे स्वर्ण के कारण तो मैं रात भर सिपाहियों की पकड़ में रहा और अगर एक करोड़ मुहरें माँग लूगा तो उनके कारण भविष्य में मेरी न जाने क्या गति होगी ? ऐसे शुभ विचारों के आते ही उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो गया और उन्होंने उसी समय अपने केशों का लंचन कर साधुवृत्ति को धारण कर लिया। शासन देवता-प्रदत्त मुनिवेश धारण कर जब वे दरबार में पहुंचे तो राजा ने चकित होकर पूछा-"क्या तुमने अभी तक मांगने के विषय में कुछ निश्चित नहीं किया ?" कपिल मुनि ने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया-- "राजन् ! जहाँ लाभ है वहाँ लोभ भी है। मेरी तृष्णा दो मासे स्वर्ण से बढ़ते-बढ़ते एक करोड़ स्वर्णमुद्राओं तक पहुंच गई थी। पर शुक्र है कि तृष्णा की विचित्रता ने मेरी आँखें खोल दी हैं । अब मुझे न लाख की आवश्यकता है और न करोड़ की । आवश्यकता केवल उस क्रिया के खोज की है, जिसके करने से मैं दुर्गति में न जाऊँ।" कपिल मुनि ने कथन था अधुवे असासयम्मि, संसारम्भि दुक्खपउराए । कि नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाहं दुग्गइन गच्छेज्ज। -उत्तराध्ययन सूत्र ८-१ इस अध्रुव, अशाश्वत और दुःखमय संसार में ऐसा कौन-सा कर्म है ? कौन-सा क्रियानुष्ठान है, जिसे अपनाकर मैं दुर्गति में जाने से बच सकू ? वस्तुतः इस संसार में कुछ भी शाश्वत रहने वाला नहीं है। यह शरीर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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