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________________ १०६ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग कहे अमीरिख जग सुख है असार धार, सुकृत सदीव यही सार है खलक में ॥ इस संसार में आयु अजुलि में भरे हुए जल के समान है अर्थात् अंजुली में भरा हुआ जल कितनी भी सावधानी रखो टिक नहीं पाता, इसी प्रकार आयु लाख सतर्कता रखने पर भी समाप्त हो जाती है । वाल्मीकि रामायण में भी कहा है-- अहोरात्राणि गच्छन्ति सर्वेषां प्राणिनामिह । आयुषि क्षपयन्त्याशु ग्रीष्मे जलमिवांशवः ।। दिन-रात लगातार बीत रहे हैं और संसार में सभी प्राणियो की आयु का तीव्र गति से नाश कर रहे हैं । ठीक उसी तरह, जैसे सूर्य की किरणें गर्मी में शीघ्रतापूर्वक फल को सुखाती रहती हैं। ____ आगे कहा है--'दौलत चपलता ज्यों दामिनि फलक में।' अर्थात् लक्ष्मी अत्यन्त चंचल है। यह आज है तो कल नहीं। जैसे आकाश में बिजली क्षण भर के लिये चमकती है इसी प्रकार दौलत आज किसी के पास देखी जाती है और कल किसी के पास । यौवनं पतंग के रंग के समान साबित होता है। पतंग पर तनिक-सा पानी पड़ते ही उस पर का रंग मिट जाता है, वैसे ही पूर्ण युवावस्था भी अल्पकाल में ही वृद्धावस्था को प्राप्त होती है और कितना भी खिलाया, पिलाया और नहलाया क्यों न जाए यह शरीर क्षण मात्र में ही आत्मा के प्रयाण करने पर निर्जीव हो जाता है। ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार की सूर्य की एक किरण के पृथ्वी पर आते ही ओस की बूद सूख जाती है। ____ कवि आगे कहता है-अरे मन ! यह वैभव और संपत्ति स्वप्न के समान अस्थिर है । तू इसकी भली-भाँति पहचान कर ले । नदी में आई हई बाढ़ जिस प्रकार जल्दी ही समाप्त हो जाती है, वैसे ही आई हुई संपत्ति पुनः चली जाती है। इस प्रकार इस जगत में रहे हुए प्रत्येक प्रदार्थ से प्राप्त होने वाला सुख क्षणभंगुर और सारहीन है। सार है तो केवल सुकृत करने में ही, क्योंकि उससे प्राप्त होने वाला पुण्य समाप्त नहीं होता तथा आत्मा के साथ चलता कुछ नहीं माँगना है कपिल मुनि पूर्वावस्था में ब्राह्मण थे और स्थानीय राजा से दो मासे स्वर्ण को प्रात:काल होते ही लेने के लिये रात को ही घर से निकल पड़े । नगर में गश्त लगाने वाले सिपाहियों ने उन्हें चोर समझ कर पकड़ लिया तथा रात भर कैद में रखकर सुबह राजा के सामने उपस्थित किया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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