________________
१०४
आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
है, सुख-संपत्ति की निरंतर वृद्धि होती है और कर्मों के समूह स्वयं नष्ट हो जाते हैं, वह परम साररूप तप ही है ।
__ जो व्यक्ति तप के महत्त्व को समझ लेते हैं तथा सच्चे तप की पहचान कर लेते हैं, वे अपनी तप-क्रिया को इतनी दृढ़, निर्दोष, निस्वार्थी एवं निष्कपट बना लेते हैं कि उन्हें उसमें धोखा नहीं खाना पड़ता। अपने उत्कृष्ट तप के द्वारा वे इच्छित फल प्राप्त करते हैं तथा मानव-पर्याय का समुचित लाभ उठा लेते हैं । वह लाभ कहाँ तक जाता है, इस विषय में कहा है
__ "तपः सीमा मुक्तिः ।" तपस्या की सीमा, तपस्या का अन्तिम परिणाम मोक्ष है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org