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तपो हि परमं श्रेय
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कुण्डलिया में कहा है- " इस मानव देह में नेत्र सबसे अधिक सरस, प्रिय व अमूल्य हैं क्योंकि इनसे ही हमें अपने लिए हितकर और अहितकर पदार्थों का ज्ञान होता है । जीवन पथ पर इन्हें खोलकर चलो ! इन्हें खोलकर चलने से कभी मार्ग भ्रष्ट नहीं होओगे ।"
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afa आगे यह भी कहा है कि इन चर्म चक्षुओं के समान ही अपने ज्ञान नेत्रों को भी खोलो जो कि आगमों का तथा धर्म ग्रन्थों का अध्ययन करने से प्राप्त होते हैं । जो भव्य प्राणी अपने ज्ञान नेत्रों को पा लेता है, उसके सामने छाया हुआ अज्ञान और मिथ्यात्व का घोर अन्धकार नष्ट हो जाता है तथा वह इस जगत में रहते हुए भी पूर्ण सुख और संतोष का अनुभव करता है । इनके अभाव में वह पर-पदार्थों के आधीन होकर लाचार-सा बन जाता है तथा कभी भी अपने ध्येय की सिद्धि में सफल नहीं हो पाता । कहा भी है-
शौच- क्षमा- सत्य तपो दमाद्या, गुणाः समस्ताः क्षणतश्चलंति । ज्ञानेनहीनस्य नरस्य लोके, वात्याहता वा तरवोऽपि मूलात् ॥
ज्ञान से रहित पुरुष के शौच, क्षमा, सत्य, तप, दम आदि सब गुण क्षण मात्र में ही समाप्त हो जाते हैं, जैसे संसार में आँधी से आहत वृक्ष मूल से नष्ट हो जाते हैं । अतः ज्ञानाराधन करना चाहिये ।
तो बंधुओ, हमें अपने आत्मिक गुणों की रक्षा के लिये ज्ञानाराधन करना है और इसीलिये ज्ञान की प्राप्ति तथा वृद्धि के लिये ग्यारह कारण बताए जा रहे हैं । इनमें से सातवाँ कारण अथवा साधन तप है जो कि आज का विषय है । तप के विषय में कहा गया है कि तप कपट रहित हो । हमारे तप करने के पीछे बनावट, ढोंग, यश-प्राप्ति की कामना अथवा अन्य कोई भी स्वार्थ नहीं होना चाहिए । इस प्रकार का निष्कपट तप करने पर ही उसका उत्तम फल प्राप्त हो सकता है । कपट रहित तप करने से कितना महान् लाभ होता है यह एक श्लोक से जाना जा सकता है
यस्मान्नश्यति दुष्टविघ्न विततिः कुर्वन्तिदास्यं सुराः । शांति याति बली स्मरोऽक्षपटली दाम्यत्यहो सर्पति ॥ कल्याणं शुभ संपदोऽनवरतं यस्मात्स्फुरति स्वयं । नाशं याति च कर्मणां समुदयः सारं परं तत्तपः ॥
कहा गया है— जिससे दुष्ट विघ्नों के समूह का नाश होता है, देवता दास बन जाते हैं, बलवान कामदेव शान्त हो जाता है, इन्द्रियों का दमन हो जाता
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