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________________ १०० आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग सियार मामा की मनुहार से प्रसन्न हुआ और उसी वक्त ऊँट के साथ चल दिया। गेनों ही कुछ दूर चले थे कि रास्ते में एक नदी आ गई । नदी पार करना सियार के वश की बात नहीं थी अत: वह बोला-"मामा ! • इसमें तो बहुत जल है, मैं कैसे नदी पार करू ?" _ "वाह ! यह क्या बड़ी बात है ? तुम मेरे भानजे हो ! आओ मेरी पीठ पर बैठ जाओ ! मैं बात की बात में तुम्हें उस पार लिये चलता हूँ।" सियार बड़ा खुश हुआ और उछल कर ऊँट की पीठ पर बैठ गया । मन में सोच रहा था-'वाह ! अ ज का दिन तो बड़ा सुन्दर है । मजे से ऊँट की सवारी करने को मिली और कुछ देर बाद बढ़िया खाने को भी मिलेगा।" ऊँट चुपचाप सियार को पीठ पर बैठाए नदी में घुस गया और बीच धार तक जा पहुंचा । उस स्थान पर जल अत्यन्त गहरा था। अब अवसर उपयुक्त देखकर ऊँट बोला- "बेटा भानजे ! मेरी आदत है कि पानी को देखते ही मुझे लोटनवाय आने लगती है । अतः मैं तो अब इसमें लेटना चाहता हूँ।" मामा को बात सुनकर सियार घबरा गया और चीखा- "ह क्या गजब करते हो मामा ! तुम पानी में लोटोगे तो मैं मर नहीं जाऊँगा?" पर इतनी देर में तो ऊँट पानी में बैठ चुका था । अतः सियार बहने लगा। वह बहुत चीखा, चिल्लाया और रोने लगा पर इससे क्या होता ? कपट करनी का फल तो भोगना ही था। ___ इस उदाहरण के द्वारा कवि ने यही बताया है कि कपट करने का नतीजा बहुत बुरा होता है और कभी न कभी उसका परिणाम भोगना ही पड़ता है। जो जीव कपट करता है उसे इसी प्रकार दुःखद फल भुगतना पड़ता है। भले ही व्यक्ति बहुत चतुराई से और कपट क्रिया-करके सोचे कि मैं कितना होशियार है, किसी को पता भी नहीं चलने दिया। कैसा ठगा दुनिया को, पर वह नादान प्राणी यह भूल जाता है कि संसार चाहे उसकी चालबाजी न समझे पर उसके कर्म तो उसकी एक-एक हरकत पर गिद्ध के समान पनी दृष्टि रखते हैं तथा उसी क्षण अपराध और उसकी सजा भी नियत करते जाते हैं। इसीलिये सच्चे साधक और सच्चे भक्त अपनी भक्ति में कपट नहीं रखते। वह परमात्मा से अपने अवगुणों को छिपाते नहीं, तथा उन्हें प्रकट करते हुए अपने आपको कर्म-बन्धनों से बचाने की प्रार्थना करते हैं। संत तुलसीदास के एक भजन से स्पष्ट होता है कि एक निष्कपट भक्त किस प्रकार अपने दोषों को स्वीकार करता हुआ भगवान् से दया की भिक्षा माँगता है । रामायण के रचयिता महाकवि तुलसीदास अपने प्रभु से कहते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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