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________________ तपो हि परमं श्रेयः १०१ कौन जतन विनती करिये ? निज आचरण विचारि हारि हिय मानि जानि डरिये ॥ जेहि साधन हरि ! द्रबहु जानि जन सो हछि परिहरिये । जाते विपति जाल निसदिन दुःख, तेहि पथ अनुसरिये ।। जानत हूं मन, वचन, करम, परहित कीन्हें तरिये । सो विपरीत देखि पर-सुख बिनु कारण ही जरिये ॥ ___ क्या कहा है तुलसीदास जी ने ? यही कि- "हे प्रभु ! मैं किस प्रकार आप से विनती करूं? जब अपने निन्दनीय आचरणों पर दृष्टिपात करता हूँ तब हृदय में हार मानकर डर जाता हूँ और प्रार्थना करने का साहस ही नहीं होता।" - "हे हरि ! जिस साधन से आप मनुष्य को अपना भक्त समझकर उस पर कृपा करते हैं, उसे तो मैं हठपूर्वक छोड़ रहा हूँ और जहाँ आपत्तियों के जाल में फंसकर दुःख ही दुःख प्राप्त होता है उस कुमार्ग पर चलता हूँ।" ___ मैं जानता हूँ कि मन, वचन और कर्म से दूसरों की भलाई करने पर मैं संसार-सागर से पार हो जाऊँगा, किन्तु मैं इससे उलटा हो आचरण करता हूँ तथा दूसरों के सुखों को देखकर बिना ही कारण ईर्ष्या की आग में जला जा रहा हूँ।" .. कितने शुद्ध भावों से भक्त ने अपने दोषों को स्वीकार किया है ? क्या सभी साधक ऐसा कर सकते हैं ? नहीं, संसार के अधिकांश प्राणी सदा अपने पापों पर पर्दा डालने के प्रयत्न मे रहते हैं। एसे तो बिरले ही होते हैं जो निष्कपट भाव से सहज ही अपने दोषों को भगवान के सामने रख देते हैं। आगे कहा है श्रुति पुरान सबको मत यह सतसंग सुदृढ़ धरिये । निज अभिमान मोह इरिषा बस तिनहिं न आदरिये ॥ संतत सोइ प्रिय मोहि सदा जातें भवनिधि परिये । कही अब नाथ, कौन बलते संसार-सोग हरिये। जब कब निकलमा स्वभावते, बहु को निस्तरिये। तुलसीदास विस्वास आन नहि, कत पच-पच मरिये ॥ कौन जतम विनती करिये ? अर्थात् -'वेद-पुरान सभी का यह सिद्धान्त है कि खूब दृढ़तापूर्वक सत्संग का आश्रय लेना चाहिये किन्तु मैं तो अपने अभिमान, अज्ञान और ईर्ष्या के वश कभी सत्संग का आदर नहीं करता । उलटे उनसे द्रोह किया करता हूँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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