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________________ ज्ञान प्राप्ति का साधन : विनय ८५ श्लोक में बताया गया है - 'घोर मद में छका हुआ हाथी जिस स्तंभ से बाँधा जाता है, उसे उखाड़ देता है, रस्सी तोड़ डालता है, मलिन धूलि अपने ऊपर डाल लेता है तथा महावत के अंकुश की भी परवाह न करता हुआ पृथ्वी पर की समस्त वस्तुओं को रौंदते हुये इच्छानुसार यत्र-तत्र विचरण करता रहता है । ठीक इसी प्रकार अर्थात् मदोन्मत्त हाथी के समान ही गर्वोन्मत्त व्यक्ति भी शांति रूपी खंभे को उखाड़ देता है तथा निर्मल बुद्धि रूपी रस्सी को तोड़ डालता है । इतना ही नहीं, वह दुर्वाक्य रूपी धूल को उछालता है और आगम रूपी अंकुश की तनिक भी परवाह किये बिना विनय रूपी गलियों को रौंदता हुआ स्वतन्त्रतापूर्वक इधर-उधर घूमता रहता है । अन्त में कहा है- मदोन्मत्त हाथी के समान ही अभिमान के मद में चूर हुआ व्यक्ति कौन-सा अनर्थ नहीं करता ? अर्थात् प्रत्येक प्रकार का अकरणीय कार्य वह करता है | एक हिन्दी कवि ने भी कहा है ―――――― जब लग अंकुश शीश पर तब लग निर्मल देह । गज अंकुश के बाहिरं, सिर पर डारत खेह ॥ इसका अर्थ आप समझ ही गए होंगे कि जब तक हाथी अंकुश में रहता है, उसकी देह निर्मल बनी रहती है । किन्तु जैसे ही वह मद में चूर होकर अंकुश के बाहर हो जाता है, अपने मस्तक पर सूंड़ से धूल डाल लेता है और शरीर को मलिन बना लेता है । तो अभिमानी व्यक्ति के लिये मदोन्मत्त हाथी की उपमा बिलकुल यथार्थ है । मिथ्यात्व एवं अभिमान के नशे में चूर हुआ प्राणी आगम रूपी अंकुश को नहीं मानता तथा शास्त्रीय वाणी को हेय समझता है । आज के युग में अवधि ज्ञानी, मनःपर्याय ज्ञानी, केवलज्ञानी या गणधर कोई भी उपलब्ध नहीं होते अतः शास्त्र ही हमारे लिये अंकुश का काम करते हैं । शास्त्रों के सहारे से ही मनुष्य चाहे तो अपनी दुर्भावनाओं का नाश कर सकता है तथा आत्मा में रही हुई त्रुटियों को सुधार सकता है । किन्तु जिसे अपने धन-वैभव का अथवा अपने ज्ञान का अहंकार है वह तो शास्त्रों की, गुरुओं की तथा संत जनों की, किसी की भी परवाह नहीं करता तथा सबका तिरस्कार एव अपमान करने के लिये कटु वचन रूपी रेत को उछालता है । उसके ऐसे अकरणीय व्यवहार से अभिमान तो अपना मस्तक उठा लेता है किन्तु विनय गुण जो कि अत्यन्त कोमल होता है, वह दब जाता है । किन्तु क्या अभिमान सदा ही अपना मस्तक ऊँचा करके चल सकता है ? नहीं, एक दिन उसे बुरी तरह अपमानित होकर नीचे गिरना पड़ता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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