SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग गर्व खर्व वैष्णव ग्रन्थों में एक उदाहरण आता है । नमुचि नामक एक दैत्य था। वह बड़ा शक्तिशाली और प्रतापी था। अपनी शक्ति के अभिमानवश उसने घोर तपस्या करके ब्रह्मा से यह वरदान भी प्राप्त कर लिया कि 'मैं न किसी अस्त्र-शस्त्र से मरू, न किसी शष्क या आद्र पदार्थ से ही मरूं।' यह वरदान प्राप्त कर लेने के बाद तो उसके गर्व का पूछना ही क्या था? निरंकुश होकर वह अन्य प्राणियों पर घोर अत्याचार करने लगा । सर्वत्र त्राहित्राहि मच गई। कुछ समय पश्चात् देवासुर संग्राम छिड़ा और नमुचि ने देवताओं के भी छक्के छुड़ा दिये । वरदान प्राप्त होने के कारण मरता भी वह किसी से नहीं था। इन्द्र का वज्र भी उसके सामने असफल हो गया। किन्तु उसके पाप का घड़ा भर गया था और उसका मान-मर्दन भी होना था अतः आकाशवाणी हुई. "कि यह अस्त्र-शस्त्र से नहीं मरेगा । इसे समुद्र के फेन से मारो !" ऐसा ही किया गया और वह महाप्रतापी दैत्य अपने अभिमान के कारण समुद्र के फेन द्वारा बुरी तरह से मारा गया । वास्तव में ही अहंकार व्यक्ति को कभी न कभी नीचा देखना ही पड़ता है । जैसा कि कहा ज ता है सर नहीं ऊँचा कभी रहते सुना अभिमान का। अपने ऊपर ही है पड़ता, थूका हुआ आसमान का। घमंड के मारे कोई व्यक्ति अगर आसमान पर थूकना चाहे तो क्या वह इसमें सफल होगा ? नहीं, उसका थूक उसी के चेहरे को गंदा करेगा । इसलिये अभिमान करना वृथा है साथ ही आत्मा की उन्नति में बाधक भी है। कारण यही है कि उसके रहते आत्मा में विनय गुण नहीं टिकता और विनय के न रहने पर ज्ञान-प्राप्ति संभव नहीं होती। प्रत्येक व्यक्ति को गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए कि इस विराट विश्व में एक से एक बढ़कर सम्पत्तिशाली, यशस्वी एवं सौन्दर्यशाली पुरुष विद्यमान हैं । फिर वह किस बूते पर अभिमान करता है ? मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ ये गर्वोक्तियाँ ही उसे एक दिन ले डूबती हैं। एक कवि ने सदा मैं मैं करने वाले बकरे का दृष्टान्त देकर इस 'मैं' से होने वाले अनर्थ का बड़ा मार्मिक चित्र खींचा है। कवि ने कहा है-- फखर बकरे ने किया मेरे सिवा कोई नहीं। मैं ही मैं हूं इस जहाँ में दूसरा कोई नहीं॥ जब न छोड़ी 'मैं-मैं' बे माया ओ बे-असवाब ने । फेर दी गर्दन प तंग आके छुरी जल्लाद ने ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy