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________________ ८४ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग सम्मान प्राप्त करता है तथा विद्वान् न होने पर भी सारे संसार को अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है ।कहा भी है"गर्व से देवता दानव बन जाता है तथा विनय से मानव देवता।" —आगस्टाइन विचारक ने कितनी यथार्थ बात कहा है कि विनय के अभाव में अहंकार के कारण जहाँ देवता भी दानव के सदृश हो जाता है वहां विनय गुण से सुशोभित मनुष्य, मनुष्य होकर भी देवता कहलाने लगता है। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति और साधक को अहंकार का त्याग करके विनय को अपनाना चाहिये । अगर अहंकार जीवन में प्रवेश कर गया तो फिर विनय का वहां रहना असम्भव हो जाएगा और उस हालत में सच्चे ज्ञान की प्राप्ति तथा मोक्ष की अभिलाषा निगशा के अतल सागर में डूब जायेगी। चिकने घड़े पर पानी __ श्री उत्तराध्ययन सूत्र में बताया है कि पांच प्रकार के व्यक्तियों को हित की शिक्षा नहीं लगती अह पंचहि ठाणेहि, जेहि सिक्खा न लभई । थम्मा, कोहा पमाएणं, रोगेणाएस्सएण य॥ वे पांच कौन-कौन से हैं ? अभिमानी, क्रोधी, प्रमादी, रोगी और आलसी। चिकने घड़े पर से बह जाने वाले जल के समान इन पांचों प्रकार के व्यक्तियों को कितनी भी शिक्षा क्यों न दी जाय, उसका कोई असर नहीं होता। इसका कारण केवल विनय का अभाव ही होता है । रावण अभिमानी था। उसके भाई विभीषण ने उसे बार-बार कहा __ "भो लंकेश्वर ! दीयतां जनकजा रामः स्वयं याचते ॥" हे लंकेश्वर ! जनकपुत्री सीता को दे दो, राम स्वयं उसकी तुमसे याचना कर रहे हैं। किन्तु घमण्ड के मारे जिसके पैर ही पृथ्वी पर नहीं पड़ते थे, वह रावण अपने हित के लिये दी जाने वाली शिक्षा को भी कैसे ग्रहण करता, परिणाम यही हुआ कि उसे अपनी सोने की लंका के समेत नष्ट होना पड़ा। एक जैनाचार्य ने अभिमानी व्यक्ति को मदोन्मत्त हाथी की उपमा देते हुए संस्कृत में एक बड़ा सुन्दर श्लोक लिखा है । वह इस प्रकार है शमालानं भंजन् विमलमति नाड़ी विघटयन् । किरन् दुर्वापांशूत्करमगणयन्नागम श्रुणिम् ॥ भ्रमन्नुा स्वरं विनय वन वीथीं विदलयन् । जनः कं नानथं जनयति मदांधो द्विप इव ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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