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________________ ज्ञान प्राप्ति का साधन : विनय ६३ मां की चेतावनी सुनते ही वह विनयवान पुत्र उठा और अपनी माता के चरणों में नतमस्तक होकर बोला - "आज तुमने मुझे कर्तव्य से च्युत होने से बचा लिया है माँ ! मैं इसी क्षण प्रतिज्ञा करता हूँ कि अपने प्राणों की भी परवाह न करके अपने भावी राजा की रक्षा करूगा।" हुआ भी यही, आशाशाह ने बड़ी सतर्कता से कुमार उदयसिंह की रक्षा की तथा उसे राजनीति आदि सभी विद्याओं में पारंगत करके बड़ा होते ही चित्तौड़ के राजसिंहासन पर बैठा दिया। कैसी थीं वे माताएँ ? एक ने तो अपने स्वामी के पुत्र के लिये अपने पुत्र का बलिदान किया तथा दूसरी ने अपने पुत्र को अपने कर्तव्य का पालन करने के लिये प्रेरित किया। पर यह इसीलिये सम्भव हुआ कि पुत्र में बचपन से ही मातृभक्ति, आज्ञापालन एवं विनयशीलता के गुण कूट-कूट कर भरे गये थे। उसको माता ने अपने पुत्र आशाशाह को शंशावस्था से ही संस्कारी बनाया था। आज भी अगर मातायें चाहें तो अपने बालकों को अपनी इच्छानुसार विनयी, वीर, विद्वान् और विचारशील बना सकती हैं । एक पाश्चात्य विचारक ने कहा है"Men are what their mother made them." -एमर्सन मनुष्य वही होते हैं जो उनकी मातायें उन्हें बनाती हैं। तो मैं आपको यह बता रहा था कि जिस परिवार, समाज और देश में व्यक्ति विनयवान और सहिष्णु होते हैं, वहाँ कभी कलह एवं आपसी झगड़ों का वातावरण स्थापित नही होता। एक देश दूसरे देश की बढ़ती को देखकर प्रसन्न हो, एक समाज दूसरे समाज का सहायक बने और परिवार का एक सदस्य दूसरे सदस्य के प्रति स्नेह और नम्रता का व्यवहार रखे वहाँ कभी अशांति नहीं होती। अशांति का मूल कारण ही अविनीतता, अज्ञान और असहिष्णुता होते हैं । अत: प्रत्येक व्यक्ति को इन दुर्गुणों से बचने का प्रयत्न करना चाहिये। _ विनम्रता जीवन का महान् गुण है । इसमें इतनी शक्ति और आकर्षण है कि अन्य समस्त सद्गुण मिलकर भी इसका मुकाबला नहीं कर सकते तथा हृदय में इसके आते ही चुम्बक के द्वारा खींचे गये लोहे के समान सब चले आते हैं। जो व्यक्ति विनय को अपना लेता है उसे सच्चे ज्ञान की प्राप्ति होती है तथा उसकी आत्मा निर्मलतर बनती जाती है । विनयी पुरुष जहाँ भी जाता है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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