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________________ ८२ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग पाये जाते हैं । फलस्वरूप उस परिवार में प्रेम एवं शान्ति का साम्राज्य नहीं रहना । उलटे घृणा, तिरस्कार तथा कलह का वातावरण बना रहता है । ठीक भी है जहाँ पिता-पुत्र, सास-बह एवं देवरानी-जिठानी ही आपस में लड़ाई-झगडे करती हों वहाँ उनकी संतान सद्गुण सम्पन्न कैसे बन सकती है ? सच्चरित्र और सुशील माता ही केवल अपनी सन्तान को आदर्श सन्तान के रूप में ला सकती है। दूध को लजा रहा है ? आपको मालूम ही होगा पन्ना धाय का उदाहरण । मेवाड़ के गौरवशाली वंश के अन्तिम दीपक नन्हें राजकुमार उदयसिंह की रक्षा के लिये पन्ना ने अपने पुत्र का बलिदान कर दिया और किसी तरह अपने प्राणों को भी संक्ट में डालकर वह अरावली के दुर्गम पह ड़ों और ईडर के कूटमार्गों को पार करती हुई कुम्भल मेरु दुर्ग पर पहुंची। उस दुर्ग का किलेदार आशासिंह देपुरा था। पन्ना धाय ने बालक उदयसिंह को लाकर आशाशाह की गोद में बिठा दिया और उसे शरण देने की प्रार्थना की। आशासिंह तनिक हिचकिचाया और बच्चे को गोद से उतारने का प्रयत्न करने लगा। यह सब आशाशाह की माता ने देखा, जो कि कुछ ही दूर पर बैठी हुई थी। शरणागत को आश्रय देने में पुत्र की हिचकिचाहट देखकर वह सिंहनी की तरह गरज कर बोली__ "यह क्या है आशा ? क्या तू मेरा इसी प्रकार का कायर पुत्र है ? मेरा दूध पीकर मुझे ही लजा रहा है, मुझे वीर माता कहलवाने के गौरव से वंचित कर रहा है ? क्या तू भूल गया है कि हम जैन हैं और शाह कहलाते हैं ? आज एक शाह के पास शरण लेने के लिये स्वयं राजा आया है । यह और कोई नहीं तेरा ही शासक मेवाड़ का राजा है। और तू अपने राजा की प्रजा होकर भी उसे शरण देने से इन्कार करना चाहता है ? इसे अपनी गोद में उठा और अपना शाहत्व तथा वीरत्व दिखा ! और यह भी दिखा संसार को कि 'जैन' कभी शरणागत की रक्षा से मुंह नहीं मोड़ते ।" बंधुओ, क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि माता की बात सुनकर आशाशाह ने क्या किया होगा? क्या उसने अपनी माँ की बात का विरोध किया होगा ? या उसे कटु शब्द कहे होंगे ? नहीं, आशाशाह सच्चे अर्थों में वीर माता का वीर पुत्र था। माता के प्रति उसके हृदय में अपार श्रद्धा और प्रेम था। इन सबके अलावा जो उसमें सबसे महान् गुण था, वह था विनय गुण । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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