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________________ भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक [ १९ ] विशाखनन्दी संघ सहित चोल-देश से लौटकर चन्द्रगुप्त के पास लौटते हैं किन्तु उसे शिथिलाचारी समझकर वे उसके नमस्कार का प्रत्युत्तर भी नहीं देते। -और वसतिका-द्वार बन्द कर उसके बाड़े में सभी साधु भोजन के समय बैठकर दारुपात्र ( काष्ठपात्र) से स्वयं अपने-अपने हाथों से उठाकर भोजन करते लगे । अन्तराय, मल एवं दोषों का उन्हें विवेक नहीं रहा। इस प्रकार उनके बारह वर्ष बीत गये। ___ और इधर, मुनि विशाखनन्दि विहार करते-करते अपने देश की ओर लौटे । उसी क्रम में वे वहाँ पहुँचे जहां उन्होंने चिरकाल-पूर्व अपने गुरु (भद्रबाहु) को छोड़ा था। संघ-सहित उन्होंने गुरु भद्रबाहु को निषही ( समाविभूमि) को वन्दना की और जितेन्द्रिय वे मुनीन्द्र वहीं रुक गये। चन्द्रगुप्त मुनि ने उन ( आगत ) मुनिराजों को प्रणाम किया तो भी उन बहुगुणी मुनियों ने प्रतिवन्दना नहीं दी। "इस महा-अटवी के मध्य यह चन्द्रगुप्त-मुनि महाव्रतों की रक्षा नहीं कर सका होगा, इसने कन्दमूल एवं फलों का भक्षण अवश्य किया होगा।" यही विचार वे सभी मुनि अपने मन में करते रहे और इसी सोचा-विचारी में रात्रि व्यतीत हो गयी तथा आकाश में सूर्योदय हो गया। ___ उसी समय जब सब ऋषिवर वहाँ से चलने लगे तभी मुनिराज चन्द्रगुप्त ने गुरु के चरणों को भक्तिपूर्वक उन ऋषियों से कहा-"देखिए, इस दिशा में एक महानगर स्थित है, उसमें पारणा करने के बाद प्रस्थान कीजिए।" वे सभी साधु यह सुनकर आश्चर्यचकित हो गये और वे तत्काल हो उन चन्द्र गुप्त मुनिराज के पीछे-पीछे चल दिये । पत्ता-वे सभी मुनि उस नगर में प्रविष्ट हुए और चित्त में प्रहृष्ट (प्रसन्न ) हुए। वहाँ के श्रावक-जनों ने उन सभी को पडगाहा और उन बारह हजार ऋषिवरों को उन्होंने विधिपूर्वक श्रेष्ठ आहार-दान दिया। तत्पश्चात् वे ऋषिवर शीघ्र ही अपनी गुहा-वसति में लौट आये । ॥१९॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004003
Book TitleBhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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