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________________ प्रस्तावना २५ कावी तो यह चाहता ही था । चाणक्य क्रोध में भरकर नन्दवंश को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा कर अपने कार्य में सहायता करने हेतु एक सुयोग्य युवक की खोज करता है । उसी समय चन्द्रगुप्त से उसकी भेंट होती है और चाणक्य उसका हाथ पकड़कर नगर के बाहर चला जाता है । वे दोनों तीव्रगामी घोड़ों पर सवार होकर राज्यप्राप्ति का उपाय खोजते खोजते दूर देश जाकर एक जलदुर्ग में छिप जाते हैं । चाणक्य के पाटलिपुत्र - पलायन का वृत्तान्त सुनकर एक प्रत्यन्तवासी राजा चाणक्य को खोजकर अपने यहाँ ले आया । प्रत्यन्तवासी सभी राजा इकट्ठे हुए और नन्द नरेशको पराजित करने का निर्णय कर राजा पर्वत के साथ मगध से युद्ध करने हेतु धन संचय करवे लगे । इतना ही नहीं, उन्होंने प्राथमिक प्रक्रिया के रूप में नन्द के शासन के रहस्य-भेदों की जानकारी हेतु गुप्तचर छोड़ दिये । चाणक्य ने शीघ्र ही अत्यन्त चतुराई पूर्वक सभी को सुसंगठित कर राजा नन्द को मरवा डाला तथा चन्द्रगुप्त को कुसुमपुर ( पाटलिपुत्र ) का राजा बनाया । अपना लक्ष्य पूरा कर चाणक्य ने जैन-दीक्षा ले ली । वह अपने ५०० शिष्यों के साथ गतियोग ( पद-यात्रा ) से स्थल पर पहुँचा और वहाँ से पश्चिम दिशा में नाम के स्थान में वह ससंघ कायोत्सर्ग - मुद्रा में बैठ गया । दक्षिणापथ स्थित " वनवास" महाक्रौञ्चपुर के एक गोकुल महाक्रौञ्चपुर-नरेश का नाम था सुमित्र । नन्द नरेश की मृत्यु के बाद उसका सुबन्धु नाम का एक मन्त्री चाणक्य से क्रुद्ध होकर तथा पाटलिपुत्र छोड़कर सुमित्र के मन्त्री के रूप में कार्य करने लगा था और चाणक्य से प्रतिशोध लेवे के लिए दृढ़प्रतिज्ञ था ही । जब राजा सुमित्र को विदित हुआ कि उसके राज्य में चाणक्य मुनि का संघ आया है, तो वह सुबन्धु के साथ उनके दर्शनार्थं गया । सुबन्धु ने बदले की भावना से चाणक्य के चारों ओर घेराबन्दी कर आग लगवा दी जिससे सभी साधुओं के साथ उसकी मृत्यु हो गयी । कवि हरिषेण ने अन्त में लिखा है कि - "दिव्यक्रौञ्चपुर की पश्चिम- दिशा में चाणक्य मुनि को एक निषद्या बनी हुई है, जहाँ आजकल ( अर्थात् कवि हरिषेण के समय में ) भी साधुजन दर्शनार्थ जाते रहते हैं ।" सिरिचन्द कृत कहकोसु एवं नेमिदत्त कृत आराधनाकथाकोष में भी चाणक्य की यही कथा मिलती है । आवश्यक सूत्र वृत्ति, आवश्यक निर्युक्ति एवं चूर्णि उत्तराध्ययनसूत्र टीका एवं परिशिष्टपर्व में मी चाणक्य की कथा मिलती है किन्तु उनके कुछ घटनाक्रमों का मेल बृहत्कथाकोष के घटनाक्रमों से नहीं बैठता । ४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004003
Book TitleBhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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