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प्रस्तावना
स्वार्थलिप्साओं से ऊपर उठकर तथा त्याग और तपस्या के धरातल पर रहकर ही सोचा और इस प्रकार उन्होंने स्वस्थ समाज के निर्माण की दिशा में अभूतपूर्व कार्य किया। पूर्वोक्त दो समाज-निर्माताओं को यूनान ने जन्म दिया और लगभग उन्हीं के समकालीन अन्तिम समाज-निर्माता को भारत-भूमि ने। इनके सार्वदेशिक, सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक सिद्धान्तों से सारा विश्व गौरवान्वित है।
चाणक्य सम्बन्धी विविध परम्पराएँ
प्लेटो एवं अरस्तू के विषय में विद्वानों ने शोध-खोजकर सर्वांगीण प्रामाणिक इतिवृत्त तैयार कर उसे प्रकाशित कर दिया है और वह प्रायः सर्वसम्मत है । आचार्य चाणक्य के महनीय व्यक्तित्व सम्बन्धी विविध परम्परागत आख्यान भी प्रचुर मात्रा में लिखे गये, किन्तु उनमें एकरूपता न होने के कारण उनके यथार्थ इतिवृत्त की खोज दुरूह हो गयी है ।
वैदिक बौद्ध एवं जैन-परम्परा में चाणक्य को पारंगत ब्राह्मण-विद्वान् के रूप में स्वीकार कर उनके जीवन-वृत्त का अपने-अपने ढंग से वर्णन किया जाता रहा है । सभी ने समान रूप से इस तथ्य को स्वीकार किया है कि उन्होंने अन्तिम नन्द नरेश धननन्द पर क्रुद्ध होकर उसे समूल नष्ट कर दिया और चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम ) को मगध की गद्दी पर अभिषिक्त किया था। बौद्ध एवं जैन परम्परा को चाणक्य-कथा कुछ अंशों में समान सिद्ध होती है।
जैनेतर चाणक्य-कथाओं पर अनेक विद्वानों ने प्रकाश डाला है और वे चचित भी हो चुकी हैं किन्तु जैन-परम्परा की चाणक्य-कथाएं प्रायः उपेक्षित जैसी रही है, जब कि उनमें अनेक ऐतिहासिक तथ्य सुरक्षित हैं। उनमें से कुछ के सारांश यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं :
जैन-परम्परा के अनुसार कुटल-गोत्रीय होने से चाणक्य का अपर नाम कोटल्य अथवा कौटिल्य एवं चणक का पुत्र होने से उसका नाम चाणक्य पड़ा। आचार्य हेमचन्द्र कृत अभिधान-चिन्तामणि में चाणक्य के अपरनाम वात्स्यायन, मल्लिनाग, कुटल, द्रामिल, पक्षिलस्वामी, विष्णुगुप्त एवं अंगुल कहे गये हैं । ये कथाएं बृहत्कथाकोष, उत्तराध्ययन सूत्र-टीका, आवश्यक सूत्र-बृत्ति, आवश्यकनियुक्ति-चूर्णि, कहकोसु ( श्रीचन्द्र ) पुण्याश्रवकथाकोषम्, स्थविरावली-चरित (हेमचन्द्र ) एवं आराधनाकथाकोष प्रभृति ग्रन्थों में उपलब्ध हैं । जैन चाणक्यकथाओं में विविधता भले ही हो, किन्तु उनको विशेषता यही है कि उनमें चाणक्य के उत्तरवर्ती जीवन का भी वर्णन है, जो जैनेतर चाणक्य-कथा में नहीं मिलता।
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