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भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक .. केवलियों एवं श्रुतकेवलो आचार्यों के क्रम में चन्द्रगुप्त का उक्त उल्लेख स्वयं अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखता है । इस उल्लेख से इसमें भी सन्देह नहीं रहता कि अन्तिम श्रुतकेवलो भद्रबाहु एवं चन्द्रगुप्त (प्रथम) समकालीन हैं। • जैन-साहित्य एवं अन्य शिलालेखीय प्रमाणों से यह सिद्ध है कि वह अपने अन्त समय में जैन धर्मानुयायी हो गया था तथा आचार्य भद्रबाहु से जैन-दीक्षा लेकर वह उनके साथ दक्षिण-भारत में स्थित श्रवणवेलगोला चला गया था। उसके जैनधर्मानुयायी होने के विषय में इतिहासवेत्ता राईस डेविड्स का निम्न कथन पठनीय है-"चूंकि चन्द्रगुप्त जैनधर्मानुयायो हो गया था, इसी कारण जैनेतरों द्वारा वह अगली १० शताब्दियों तक इतिहास में उपेक्षित ही वना रहा ।"
इतिहासकार टॉमस ने तो यहाँ तक लिखा है कि "मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त जैन समाज के महापुरुष थे । जैन साहित्यकारों ने यह कथन एक स्वयंसिद्ध और सर्वविदित तथ्य के रूप में लिखा है । इसके लिए उन्हें किसी भी प्रकार के अनुमानप्रमाण को प्रस्तुत करने की आवश्यकता का अनुभव नहीं हुआ। इस विषय में अभिलेखीय प्रमाण अत्यन्त प्राचीन एवं असन्दिग्ध हैं। मेगास्थनीज के विवरणों से भी यह विदित होता है कि उसने ( चन्द्रगुप्त ने ) ब्राह्मणों के सिद्धान्तों के विरोध में श्रमणों ( जैनों ) के उपदेशों को स्वीकार किया था।" महाकवि रघू ने चन्द्र गुप्त का चित्रण एक ऐतिहासिक जैन महापुरुष के रूप में किया है । - जैन कालगणना के अनुसार उसका राज्याभिषेक-काल ई. पू. ३७२ के
आस-पास सिद्ध होता है।
चाणक्य
ई. पू. चौथी सदी के आसपास अध्यात्मवादियों ने जिस प्रकार अध्यात्म एवं दर्शन के द्वारा समाज के नव-निर्माण में अपना योगदान किया, उसी प्रकार समाज एवं राजनीति-विशारदों ने भी । इस दिशा में प्लेटो, अरस्तू एवं आचार्य चाणक्य के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनके विचारों ने विश्व-समाज को सर्वाधिक प्रभावित किया है। इसका मूल कारण, आचार्य हरिभद्र के शब्दों में. यह था कि वे "अकारण कल्याणमित्र" थे। सर्वोदयी उपलब्धियों का फलभोग वे स्वयं नहीं, मानव-मात्र के लिए भी नहीं, अपितु विश्व के प्रत्येक प्राणी को कराना चाहते थे। उनको ध्यान में रखकर उन्होंने अपनो व्यक्तिगत
१. दे. बुद्धिष्ट इण्डिया पृ. १६४ । २. दे. जैनिस्म और अर्ली फैथ आफ अशोक पृ. २३ ।
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