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प्रस्तावना
उक्त मौर्यवंश के प्रथम सम्राट् चन्द्रगुप्त को भारतीय इतिहास का प्रकाशस्तम्भ माना जाता है क्योंकि उसके नाम एवं काल से ही भारतीय इतिहास के तिथिक्रम का निर्धारण होता है। दुर्भाग्य से इस महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व का नाम विस्मृति के गर्भ में जा चुका था किन्तु धन्यवाद है उन प्राचीन ग्रीक-इतिहासकारों को, जिन्होंने उसकी शौर्य गाथाओं एवं आदर्श कार्य-कलापों की अपने इतिहास-ग्रन्थों में चर्चा की। उन्होंने उसका "सैण्ड्रोकोट्टोस" के नाम से स्मरण किया। सर विलियम जोन्स मी कम श्रद्धास्पद नहीं, जिन्होंने सर्वप्रथम यह सुझाया कि ग्रीक इतिहासकारों का सैण्ड्रोकोडोस ही मौर्यवंशी चन्द्रगुप्त (प्रथम) हो सकता है । सर जोन्स के इसी अनुमान के अाधार पर प्राचीन भारत के लुप्त इतिहास की खोजबीन की गयी और अन्त में वह वास्तविक भी सिद्ध हुआ। भारतवर्ष के इतिहास-लेखन के लिए सुनिश्चित तिथिक्रम का आधार होने के कारण सुप्रसिद्ध विद्वान् रैप्सन ने उसे भारतीय इतिहास का सुदृढ़ लंगर ( The sheet-anchor of Indian chronology ) कहा है।
किन्तु जिस प्रकार मौर्य जाति के विषय में विभिन्न मतभेद हैं, उसी प्रकार चन्द्रगुप्त के जीवन-वृत्त के विषय में भी। वैदिक-साहित्य में विष्णुपुराण, कथासरित्सागर एवं मुद्राराक्षस-नाटक में उसके जीवन-वृत्त की चर्चा की गयी है, किन्तु उनमें परस्पर संगति नहीं बैठती। जैन एवं बौद्ध-साहित्य में भी तद्विषयक चर्चाएं मिलती हैं और उनकी अनेक घटनाओं में यत्किचित् हेर-फेर के साथ समानता भी है। इनका तुलनात्मक अध्ययन एक स्वतन्त्र विषय है, जो विस्तारभय से यहाँ सम्भव नहीं। किन्तु यह निश्चित है कि जब भी उस पर निष्पक्ष शोध-कार्य होगा, उससे न केवल चन्द्रगुप्त सम्बन्धी अपितु पूरे मौर्य-वंश सम्बन्धी कई भ्रान्तियों के निराकरण होवे की सम्भावनाएं हैं। इस दृष्टि से जैन-साहित्य के भगवती-आराधना, तिलोयपण्णंत्ति, बृहत्कथाकोष, अर्धमागधी आगम-साहित्य सम्बन्धी नियुक्ति एवं चूर्णी-साहित्य तथा परिशिष्टपर्वन् तथा बौद्ध-साहित्य के महावंश एवं मंजुश्रीमूलकल्प विशेष महत्त्व के ग्रन्थ हैं।
प्राकृत, संस्कृत एवं कन्नड़ के जैन-साहित्य एवं शिलालेखों में मौर्य चन्द्रगुप्त (प्रथम ) का परिचय बड़े ही आदर के साथ दिया गया है। तिलोयपण्णत्ति ( चतुर्थशती के आसपास में लिखित ) के अनुसार मुकुटधारी राजाओं में अन्तिम राजा चन्द्रगुप्त ( मौर्य, प्रथम ) ही था, जिसने जिनदीक्षा धारण की। उसके बाद कोई भी मुकुटधारी राजा दीक्षित नहीं हुआ। यथाः
मउडधरेसुं चरिमो जिणदिक्खं धरिदं चंदगुत्तो य । तत्तो मउडधरा दुप्पश्वज्ज व गेण्हंति ॥ ४॥१४८१
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