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प्रस्तावना
होते हुए उज्जयिनी पहुंचे हो और फिर वहाँ से दक्षिण की ओर स्वयं गये हों, या स्वयं वहीं रुककर अपने साधु-संघ को दक्षिण की ओर
जाने का आदेश दिया हो ? [२] प्रायः यह प्रश्न उठता है कि मौर्यवंशी चन्द्रगुप्त (प्रथम) मगध का राजा था अथवा उज्जयिनी का ? किन्तु इसका उत्तर कठिन नहीं। क्योंकि चन्द्रगुप्त एक प्रतापी नरेश था। मगध की गद्दी प्राप्त करते हो उसने अपने प्रताप से पश्चिम में मालवा से सिन्धुदेश तक तथा दक्षिण के अनेक राज्यों को अपने अधीन कर लिया था। प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से उज्जयिनी को अपनी उप-राजधानी बनाकर वह समय-समय पर वहाँ जाकर रहता होगा। यही कारण है कि अनुश्रृंतियों के आधार पर किसी ने उसे मगध का राजा बताया तो किसी ने उज्जयिनी का। वस्तुतः वह दोनों नगरों अथवा प्रदेशों का राजा था।
[३] हरिषेण ने मौर्य चन्द्रगुप्त (प्रथम) को विशाखाचार्य से अभिन्न माना है, किन्तु उनके परवर्ती कवियों ने दोनों को पृथक्-पृथक् माना । हरिषेण के परवर्ती कवियों ने स्पष्ट ही लिखा है कि दक्षिणाटवी में मुनि चन्द्रगुप्त तो आचार्य भद्रबाहु के साथ रहकर उनकी सेवा करते रहे और भद्रबाहु के आदेश से विशाखाचार्य १२००० साधुओं के संघ का नेतृत्व करते हुए आगे बढ़े। श्रवणबेलगोला एवं अन्यत्र के शिलालेखीय प्रमाणों से भी उक्त दूसरे तथ्य का समर्थन होता है।
[४] इसी प्रकार आचार्य भद्रबाहु के समाधिस्थल-विषयक जो विविध नाम मिलते हैं यथा-भाद्रपद-देश, दक्षिणाटवी, शुक्लसर, धवलसर या शुक्लतीर्थ, वे भी पाठकों के मन में भ्रम उत्पन्न करते हैं कि वास्तविक समाधि-स्थल कौनसा रहा होगा ? किन्तु वे भी श्रवणबेलगोल के पर्यायवाची ही प्रतीत होते हैं। कथाकारों के कथन में शब्दभेद भले ही हो, मेरी दृष्टि से उनमें अर्थभेद नहीं मानना चाहिए।
[५] कवि रत्ननन्दि के अनुसार विशाखाचार्य के दक्षिण-भारत से लौटते ही रमिल्ल एवं स्थूलिभद्र के शिष्यों ने छेदोपस्थापना-विधि पूर्वक अपना शिथिलाचार छोड़कर पूर्वावस्था प्राप्त कर ली किन्तु स्थूलाचायं से क्रोधित होकर उनके कुछ क्रोधी साधु-शिष्यों ने उनकी हत्या कर दी। यहो शियिलाचारी-संघ अर्धफालकसम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ क्योंकि वह नग्नता को छिपाने के लिए बायें
१. दे० रत्ननन्दी कृत भद्रबाहुचरित्र ४७ २. दे० वही-४।१७
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