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प्रस्तावना
[६] महाकवि रइधू (१५-१६वीं सदो ) को भद्रबाहु-कथा का आधार पुण्याश्रवकथाकोष एवं बृहत्कथाकोष है । उसका सार आगे प्रस्तुत किया जाएगा।
[७] १६वीं सदी में ही एक अन्य कवि नेमिदत्त ने भी अपने "आराधनाकथाकोष" में भद्रबाहु-कथा लिखो, किन्तु उसका मूल आधार एवं स्रोत हरिषेण कृत बृहत्कथाकोष ही है । उसके कथानक में भी कोई नवीनता नहीं है ।
आचार्य भद्रबाहु : एक भ्रम निवारण प्राचार्य भद्रबाह के जीवन-वृत्त के विषय में एक तथ्य ध्यातव्य है कि दि. जैन पट्टावली में इस नामके दो आचार्यों के नाम आए हैं। एक तो वे, जो अन्तिम श्रुतकेवली हैं और दूसरे वे, जिनसे सरस्वतीगच्छ-नन्दि-आम्नाय को पट्टावली प्रारम्भ होती है। द्वितीय भद्रबाहु का समय ई० पू० ३५ अथवा ३८ वर्ष है, अतः इन दोनों भद्रबाहुओं के समय में लगभग ३५० से भी कुछ अधिक वर्षों का अन्तर है। फिर भी कुछ लेखकों ने सम्प्रति-चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के स्वप्नों के फल-कथन का भद्रवाह-प्रथम से सम्बन्ध जोड़कर एक भ्रमात्मक स्थिति उत्पन्न की है। यह सम्भव है कि सम्प्रति-चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के स्वप्नों का फल-कथन द्वितीय भद्रबाहु ने किया हो । ऐसा स्वीकार नहीं करने से इतिहास-प्रसिद्ध भद्रबाहुप्रथम एवं मौर्य चन्द्रगुप्त-प्रथम का गुरु-शिष्यपना तथा उसके समर्थक अनेक शिलालेखीय एवं शास्त्रीय प्रमाण निरर्थक कोटि में आकर अनेक भ्रम उत्पन्न कर सकते हैं। ___उक्त भद्रबाहुचरितों के तुलनात्मक अध्ययन करने से निम्न तथ्य सम्मुख आते हैं:[१] (क) आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) के समय उत्तर भारत के कुछ प्रदेशों में
अनुमानतः ई. पू. ३६३ से ई. पू. ३५१ के मध्य १२ वर्षों का भयानक दुष्काल पड़ा था। इसमें श्रावकों द्वारा सादर रोके जाने पर भी आचार्य भद्रबाहु रुके नहीं और वे अपने संघ के साथ
चोल, तमिल अथवा पुन्नाट ( कर्नाटक ) देश चले गये। (ख) आचार्य हरिषेण के अनुसार यह दुष्काल उज्जयिनी में पड़ा । अतः
उन्होंने मुनि चन्द्रगुप्त (भूतपूर्व उज्जयिनी नरेश) अपरनाम विशाखाचार्य
१. जिनवाणी प्रसारक कार्यालय कलकत्ता से प्रकाशित । २. दे०५० कैलाशचन्द्र शास्त्री जैन साहित्य का इतिहास-पूर्वपीठिका
(वाराणसी, १९६३) पृ० ३४७-९, । ३. दे० इसी ग्रन्थ की परिशिष्ट सं० ३ (पृ० ७३-७४)।
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