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________________ भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक श्रावकों के विशेष बाग्रह पर रमिल्ल, स्थूलिभद्र एवं स्थूलाचार्य दक्षिण-भारत न जाकर उज्जैन में ही रह गए । कुछ दिनों के बाद वहां भयानक अकाल पड़ा। अकालजन्य दुष्प्रभाव के कारण उनका संघ शिथिलाचारी हो गया। सुकाल आने पर विशाखाचार्य संघ सहित चन्द्रगुप्त के पास लौटे और उनके साथ कान्तार-चर्या करते हुए उज्जयिनी लौट आए। रमिल्ल एवं स्थूलिभद्र की आज्ञा से उनके शिष्यों ने छेदोपस्थापना-विधि पूर्वक अपनी पूर्वावस्था को प्राप्त कर लिया, किन्तु स्थूलाचार्य के शिष्यों ने उनकी आज्ञा नहीं मानी। इतना ही नहीं, उन्होंने क्रोधित होकर उनकी हत्या भी कर डाली, जिस कारण मरकर वे व्यन्तर-देव-योनि को प्राप्त हुए । सन्त्रस्त करते रहने के कारण शिष्यों ने उनकी आराधना की, उससे व्यन्तरदेव बड़ा प्रसन्न हुआ। आगे चलकर वह पर्युपासन नामक कुलदेवता के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसका सम्प्रदाय अर्धफालकसम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ, क्योंकि वह नग्नता को छिपाने के लिए बायें हाथ में वस्त्र-खण्ड लटकाकर चला करता था। दीर्धकाल के बाद उज्जयिनी में चन्द्रकीति नाम का एक राजा हुआ, जिसकी रानी का नाम चन्द्रश्री था । उसकी पुत्री का नाम चन्द्रलेखा था। उसे अर्धफालक-सम्प्रदायके साधुओं ने अपने ढंग से प्रशिक्षित किया। युवावस्था को प्राप्त होते ही उसका विवाह बलभी नगर के राजा प्रजापाल के पुत्र लोकपाल के साथ सम्पन्न हुआ। उसने अपने पति लोकपाल से आग्रह कर अर्धफालक साधुओं को अपने राज्य में निमन्त्रित कराया। राजा प्रजापाल ने उनका वेश देखकर उनकी निन्दा की। तब चन्द्रलेखा की प्रार्थना पर साधुओं ने अपना वेश बदलकर श्वेतवस्त्र धारण कर लिए और तभी से वे "श्वेताम्बर" कहलाए । यह घटना विक्रमराज की मृत्यु के १३६ वर्ष अर्थात् सन् ७९ ई. के बाद की है। इस सम्प्रदाय के साधुओं ने स्त्री-मुक्ति, केवली-कवलाहार, सचेलकता एवं महावीर के गर्भापहरण आदि का प्रचार किया। राजा लोकपाल की पुत्री का नाम नृकुल देवी था। उसका विवाह करहाटक नगर के राजा भूपाल के साथ सम्पन्न हुआ। रानी नृकुलदेवी के आग्रह से राजा लोकपाल ने उन श्वेताम्बर साधुओं को अपने नगर में निमन्त्रित किया। सवस्त्र एवं दण्डपात्रादि से युक्त देखकर राजा ने उन्हें जब मान्यता प्रदान नहीं की, तब रानी की प्रार्थना पर उन्होंने वस्त्र त्याग तो कर दिया, किन्तु अपना आचरण श्वेताम्बर साधुओं जैसा ही बनाए रखा। इस कारण इनका सम्प्रदाय यापनीयसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। राजा विक्रम की मृत्यु के १५२७ वर्ष बाद अर्थात् सन् १४७० ई. में लोंकामत (ढूंढियामत) प्रारम्भ हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004003
Book TitleBhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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