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________________ प्रस्तावना कहको के अनुसार भद्रबाहु के आदेश से दुष्काल के समय विशाखसू रि अपना संघ लेकर तमिलदेश चले जाते हैं । मायानगर से चर्या के बाद लौटते समय विशिष्ट ऋद्धि के कारण लघु भद्रबाहु ( चन्द्रगुप्त ) पृथित्रा से ४ अंगुल ऊपर उठकर चलते थे जब कि विशाखाचार्य को कोचड़ से भरी भूमि में चलना पड़ता था । १ [५] १६वीं सदी के आसपास रत्ननन्दी ( अपरनाम रत्नकोति ) कृत भद्रबाहुचरित के अनुसार पुण्ड्रवर्धन देश के कोट्टपुरनगर निवासी सोमशर्मं द्विज के यहाँ भद्रबाहुका जन्म हुआ । अपनी गिरनार यात्रा के प्रसंग में आचार्य गोवर्धन उस नगर में पधारे और खेल-खेल में १४ गोलियाँ एक के ऊपर एक स्थिर रूप से रोप देनेवाले भद्रबाहुको देखकर तथा उन्हें भावी श्रुतकेवली जानकर उन्हें अपने साथ ले लिया और अध्ययन कराकर उन्हें मुनि दीक्षा दे दी । आगे चलकर वे अन्तिम श्रुतवली हुए । उस समय अवन्ति देश की उज्जयिनी नगरी में चन्द्रगुप्ति का राज्य था । एक बार उसने १६ स्वप्न देखे । संयोग से अगले समय ही आचार्य भद्रबाहु १२००० साधुओं के संघ के साथ उज्जयिनी पहुँचे । चन्द्रगुप्ति ने उनसे स्वप्नों का फल जानकर जिनदीक्षा ले ली । एक समय आचार्य भद्रबाहु चर्या हेतु निकले और एक घर में एक शिशु ने उन्हें बा बा बा, "बा बा बा" कहा, जिसका अर्थ उन्होंने लगाया कि यह देश शीघ्र ही छोड़ देना चाहिए, क्योंकि आगामी १२ वर्षों में यहाँ भयानक दुष्काल पड़ने वाला है । उन्होंने उसकी भविष्यवाणी कर अपने साधुसंघ को शिथिलाचार से बचाने हेतु दक्षिण भारत के निरापद देश में जाने का आदेश दिया । श्रावकों के आग्रह पर भी वे न रुके और वहाँ से संघ सहित प्रस्थान कर दक्षिण की एक गहन अटवी में जाकर रुके, जहाँ आकाशवाणी द्वारा अपनी अल्पायु जानकर वे मुनि चन्द्रगुप्ति के साथ वहीं रह गए और विशाखाचार्य के नेतृत्व में समस्त साधु-समूह को चोल देश की ओर भेज दिया । अटवी गुफा में भद्रबाहु ने चन्द्रगुप्त को कान्तार- चर्या का आदेश दिया । तीन दिन तक तो विधिपूर्वक पारणा न मिलने से उन्होंने उपवास किया, किन्तु चौथे दिन विधिपूर्वक पारणा की, इससे भद्रबाहु को बड़ा सन्तोष हुआ । कुछ ही दिनों में आचार्य भद्रबाहु ने समाधिमरण पूर्वक देह त्याग किया। मुनि चन्द्रगुप्त ने उनके चरणों की स्थापनाकर उनकी आराधना की । १. पं० उदयलाल काशलीवाल द्वारा सम्पादित तथा सूरत (१९६६ ई०) से प्रकाशित । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004003
Book TitleBhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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