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भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक
१. विष्णुनन्दि- ई० पू० ४६५ से ई० पू० ४५१ ( १४ वर्ष )
(या विष्णुकुमार ) २. नन्दिमित्र- ई० पू० ४५० से ई० पू० ४३४ ( १६ वर्ष) ३. अपराजित- ई० पू० ४३३ से ई० पू० ४११ ( २२ वर्ष ) ४. गोवर्धन- ई० पू० ४१० से ई० पू० ३९१ ( १९ वर्ष ) ५. भद्रबाहु (प्रथम)-ई० पू० ३९० से ई० पू० ३६१ ( २९ वर्ष)
१०० वर्ष
तत्पश्चात् अंग एवं पूर्व-साहित्य के ज्ञानियों की क्रमिक-परम्परा मिलती है, जिनका काल महावीर-निर्वाण के १६२ वर्ष बाद [ अर्थात् ई० पू० ३६५ ] से ईस्वी सन् ००३८ तक माना गया है । अंगधारी अन्तिम आचार्य लोहाचार्य हुए । वस्तुतः यह काल श्रुतज्ञान का ह्रासकाल था, फिर भी उस समय तक उसकी एकदेश परम्परा चलती रही। अंगधारियों की इस परम्परा के आद्य आचार्य विशाखनन्दी हुए जो ११ प्रकार के अंग-साहित्य एवं १० प्रकार के पूर्व-साहित्य के ज्ञाता थे, जिनका काल ई० पू० ३६५ से ई० पू० ३५५ तक माना गया है।
आचार्य गोवर्धन, भद्रबाहु एवं विशाखाचार्य का जैन संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश-साहित्य में पर्याप्त वर्णन किया गया है । आचार्य गोवर्धन के विषय में पूर्वोक्त सन्दर्भो के साथ-साथ यह भी उल्लेख मिलता है कि वे १२००० शिष्यों के साथ आर्यक्षेत्र के कोटिनगर में पधारे थे और अपने निमित्तज्ञान से वहां के पुरोहितपुत्र भद्रबाहु को भावी श्रुतकेवली जानकर उन्हें उनके माता-पिता की सहमतिपूर्वक अपने साथ लाकर तथा उन्हें श्रुतांगों का ज्ञान कराकर स्वर्ग सिधारे थे। यही भद्रबाहु आगे चलकर अन्तिम श्रुतकेवली के रूप में प्रसिद्ध हुए।
विविध कवियों की दृष्टि में आचार्य भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवलो-भद्रबाहु ( प्रथम ) के विषय में संक्षिप्त एवं विस्तृत अनेक कथाएँ मिलती हैं । श्रमण-संस्कृति के महापुरुष होने के कारण तो उनका महत्त्व है ही, उनका विशेष महत्त्व इसलिए भी है कि मौर्य-सम्राट चन्द्रगुप्त (प्रथम) से उनका सीधा सम्बन्ध है तथा इसी माध्यम से भारतीय राजनीति के प्रमुख आचार्य चाणक्य से भी।
१. इनका विवरण परिशिष्ट ५ ( टिप्पणियों ) में देखिए ।
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