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________________ प्रस्तावना आधुनिक इतिहासकारों में कोई विरोध ही नहीं है। उनके २५० वर्षों के बाद अर्थात् आज से ई० पू० २५८० में अन्तिम तीर्थंकर महावीर का जन्म हुआ। भगवान महावीर का तीर्थकाल चतुर्थकाल अर्थात् सुखम-खमा का अन्तिम चरण माना गया है। जैन-परम्परा के अनुसार ई० पू० ५२७ में महावीरनिर्वाण के बाद उक्त काल के केवल ३ वर्ष ८ माह एवं १५ दिन ही शेष बचे थे । यह तो सर्वविदित ही है कि मन्धिकाल प्रायः संघर्ष पूर्ण होता है । चतुर्थकाल जहाँ मानव-जीवन के सुखों-दुःखों से मिश्रितकाल माना गया है, वहां पंचमकाल मानव-जीवन में दुःख ही दुःख प्रस्तुत करनेवाला काल माना गया है। ईर्ष्या, कलह, विद्वेष, हिंसा, स्वार्थपरता, भ्रष्टाचार, वक्रजड़ता एवं स्मृति-शैथिल्य तथा अतिवृष्टि, अनावृष्टि तथा दुष्काल आदि उसके प्रधान लक्षण हैं। इस काल की ममय-सीमा २१००० वर्ष प्रमाण मानी गयी है। इसका चित्रण प्राच्य संस्कृत एवं प्राकृत के जैन-साहित्य में विस्तार के साथ उपलब्ध होता है । ___ संक्षेप में कहा जाय तो कह सकते हैं कि जहां भौतिकवादियों ने पंचमकाल को सभ्यता का चरम विकासकाल माना, वहीं अध्यात्मवादियों विशेषतः जैनाचार्यों ने इस युग को मानव-मूल्यों के क्रमिक-ह्रास का युग माना है। केवलज्ञानियों एवं श्रुतधरों को परम्परा भगवान् महावीर के परिनिर्वाण (ई० पू० ५२७) के १६२ वर्षों तक श्रुतपरम्परा का क्रम ठीक रहा, किन्तु उसके बाद कालदोष से उसमें ह्रास होने लगा। तिलोयपण्णत्ति के अनुसार जिस दिन भगवान् महावीर का परिनिर्वाण हआ, उसी दिन उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ और उनका निर्वाण हुआ ई० पू० ५१५ में । उनके मुक्त होने पर सुधर्मा स्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई और उनका निर्वाण हुआ ई० पू० ५०३ में । उनके बाद जम्बू-स्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। यही अन्तिम अनुबद्ध-केवली थे । इनका निर्वाणकाल ई० पू० ४६५ माना गया है। इनके बाद कोई अनुबद्धकेवली नहीं हुआ। तिलोयपण्णत्ति के अनुसार ३ केवलियों के बाद ५ श्रुतकेवली हुए, जिनके नाम एवं इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार के अनुसार उनका कालक्रम निम्न प्रकार है : १. तिलोयपण्णत्ति. १११४७६-७८. २. तिलोयपण्णत्ति-१।१४८२-८४ । ३. दे० जैन साहित्य का इतिहास : पूर्वपीठिका पृ० ३३९ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004003
Book TitleBhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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