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प्रस्तावना
[१-२ ] यतिवृषभकृत तिलोयपण्णत्ति ( चतुर्थ सदी ईस्वी ) में उपलब्ध सामान्य सन्दर्भो के बाद आचार्य हरिषेण ( सन् ९३१-३२ ईस्वी ) प्रथम कवि है, जिन्होंने पूर्वागत अनुश्रुतियों एवं सन्दर्भो के आधार पर भद्रबाहु की जीवनगाथा सर्वप्रथम अपने बृहत्कथाकोष (दे० कथा सं० १३१) में निबद्ध की । उसके कथानक के अनुसार भद्रबाह पुण्ड्रवर्धन देश में स्थित देवकोट्ट (जिसका कि पूर्वनाम कोटिपुर था) के निवासो सोमशर्मा द्विज के पुत्र थे। उन्होंने खेल-खेल में १४ गोलियां एक के ऊपर एक रखकर दर्शकों को आश्चर्यचकित कर दिया। गोवर्धनाचार्य ने उन्हें देखकर तया भावो श्रुतकेवली जानकर उनके पिता से उन्हें मंगनी में मांग लिया तथा ज्ञान-विज्ञान का प्रकाण्ड विद्वान् बनाकर बाद में उन्हें मुनि-दीक्षा दे दी। कठोर तपश्चर्या के बाद वही अन्तिम पांचवें श्रुतके बली आचार्य भद्रबाहु के रूप में विख्यात हुए ।
अन्य किसी समय विहार करते-करते आचार्य भद्रबाह उज्जयिनी पहुँचे । वहाँ रानो सुप्रभा के साथ राजा चन्द्रगुप्त राज्य करते थे । वे श्रावकों में भी अग्रगण्य माने जाते थे।
एक बार वहाँ आचार्य भद्रबाहु ने भिक्षा के निमित्त किसो गृह में प्रवेश किया। वहां चोलिका में लेटे हुए एक शिशु ने भद्रबाहु को देखते ही कहा"छिप्रं गच्छ त्वं भगवन्नितः अर्थात् हे भगवन्, आप यहां से तत्काल चले जावें।"
दिव्य ज्ञानी आचार्य भद्र बाहु ने शिशु के कथन से भविष्य का ज्ञान किया और समझ गये कि अब निकट भविष्य में यहाँ १२ वर्ष का भयानक दुष्काल पड़नेवाला है। वे उस दिन बिना भिक्षा के हो वापिस लोट आये और अपने साधु संघ को बताया कि-"मेरी आयु अत्यल्प रह गयी है, अतः मैं तो अब यहीं पर समाधि लूंगा। किन्तु आप लोग समुद्री किनारे के देशों में चले जावें, क्योंकि यहाँ शोघ्र हो १२ वर्षों का भयानक दुष्काल पड़ेगा तथा चोरों एवं लुटेरों के आतंक के कारण यह देश देखते-देखते शून्य हो जायगा।" ।
यह सुनकर नरेश्वर चन्द्रगुप्त ने उन्हीं आचार्य भद्रबाहु से जैनदीक्षा ले लो। वे दशपूर्वधारी होकर विशाखाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए । उन्हीं के साथ साधुसमुदाय दक्षिण भारत में स्थित पुत्राटदेश चला गया।
और इधर, आचार्य भद्रबाहु उज्जयिनी के समीपवर्ती भाद्रपद-देश पहुँचे तथा वहां समाधिमरण पूर्वक देह-त्याग किया। १. जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर ( १९५१, ५६ ) से दो खण्डों में प्रकाशित । . २. सिघी जैन सीरीज, बम्बई से ( १९४३ ई० ) प्रकाशित । ३. मूल कयानक के लिए इसी अन्य को परिशिष्ट सं० १ देखिए।
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