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________________ भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक ___ २४।८ सुयंगु ( श्रुतांग )—यह बारह प्रकार का है-(१) आचारांग, (२) सूत्रकृतांग, (३ ) स्थानांग, (४) समवायांग, (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति, (६) ज्ञातृकथा, (७) उपासकदशांग, (८) अन्तःकृद्दशांग, (९) अनुत्तरोपपातिकदशांग, (१०) प्रश्नव्याकरणांग (११) विपाकसूत्रांग एवं (१२) दृष्टिवादांग । २४।१० सुयपंचमी ( श्रुतपंचमी)-श्रुतांगों के लेखन ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी की तिथि। २४।१० काल-जैन मान्यतानुसार काल के दो भेद हैं (१) उत्सर्पिणी काल एवं (२) अवसर्पिणी काल । जिस काल में बल, आयु, अनुभव एवं उत्सेध का उत्सर्पण अर्थात् वृद्धि हो, वह उत्सर्पिणी काल एवं उनका ह्रास हो, वह अवसर्पिणी काल कहलाता है। ये दोनों काल मिलकर कल्पकाल कहलाते हैं। इन दोनों को मिला देने से २० कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण एक कल्पकाल होता है। ___ अवसर्पिणी काल एवं उत्सर्पिणी काल ६-६ प्रकार के होते हैं । निम्न मानचित्र से उन्हें समझा जा सकता है : अवसर्पिणीकाल गुण उत्सर्पिणीकाल गुण १. सुषमा-सुषमा -अत्यन्त सुख ही | १. दुषमा-दुषमा -घोर दुख ही दुख सुख २. सुषमा २. दुषमा -दुख ३. सुषमा-दुषमा -दुखों की अपेक्षा | ३. दुषमा-सुषमा -सुखों की अपेक्षा सुख अधिक दुख अधिक ४. दुषमा-सुषमा -सुखों की अपेक्षा ४. सुषमा-दुषमा -दुखों की अपेक्षा दुख अधिक सुख अधिक ५. दुषमा -दूख | ५. सुषमा -सुख ६. दुषमा-दुषमा -घोर दुख ही दुख। ६. सुषमा-सुषमा -अत्यन्त सुख ही सुख उक्त नामों में 'सु' उपसर्ग सुख एवं 'दु' उपसर्ग दुःख के सूचक हैं । २४।१० पंचमकाल-जिनसेनकृत महापुराण के अनुसार पंचमकाल अत्यन्त दुखदायी होता है । मिथ्यामतों का प्रचार, व्यन्तर देवों की उपासना, भ्रष्टाचारी मनुष्यों का बाहुल्य, विविध व्याधियां, रसविहीन औषधियाँ, असन्तोष, पारस्परिक कलह, नास्तिकता का प्रचार आदि उसके प्रधान लक्षण बतलाये गये हैं। जैन मान्यतानुसार वर्तमान-युग पंचमकाल ( अवसर्पिणी का दुषमाकाल ) के अन्तिम चरण में चल रहा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004003
Book TitleBhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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