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________________ नैष्ठिकाचार का अवलम्बन करता है, क्योंकि वह विषयमूढ़ता से दूर है। जो विमूढ़ हैं वे धर्म की अभिलाषा से गंगादि तीर्थों में, प्रयाग के संगम में, गोदावरी, यमुना, नर्मदा या कहीं भी अन्यत्र स्नान करने मात्र से अपने को पापमुक्त मान लेते हैं। वे यह विचार नहीं करते कि स्नान से शारीरिक मल दूर होगा, आत्मा के रागद्वेषादि दोष दूर नहीं हो सकते। लौकिक मान्यता के आधार से चली हुई उक्त लोकमूढ़ता के कारण मोही पुरुष इस सम्यक् तत्त्व को नहीं जानता है। पवित्रता धर्म का अङ्ग है यह निःसन्देह है। शारीरिक पवित्रता स्नानादि से प्राप्त होती है, पर आत्मा की पवित्रता स्नान से नहीं होती। आत्मा अमूर्त द्रव्य है और जल मूर्त्तिमान् पदार्थ है। मूर्तिमान पदार्थ से अमूर्त द्रव्य पवित्र या अपवित्र नहीं होता। गङ्गादि स्नान में धर्म माननेवाले सज्जनों को आत्मा की पवित्रता के लिए श्रीकृष्णजी का उपदेश ग्रहण करना चाहिए। अर्जुन को सम्बोधित करते हुए श्रीकृष्णजी ने कहा है आत्मा नदी संयमतोयपूर्णा सत्यावहा शीलतटा दयोर्मिः । तत्रावगाहं कुरु पाण्डुपुत्र! न वारिणा शुद्ध्यति चान्तरात्मा ।। अर्थात् हे पाण्डु के पुत्र धीरवीर अर्जुन! अपनी आत्मा ही नदी है, उसमें 'संयम रूप' पवित्र जल भरा है, जिसमें सदा 'सत्य' ही बहता रहता है। 'शील' उसका तट है, उसमें दया की ऊर्मियाँ अर्थात् लहरें सदा लहराया करती हैं। ऐसी पवित्र आत्मा रूपी नदी में तू प्रवेशकर, अर्थात् आत्मा के अपने उक्त पवित्र रूप में रमण कर। इससे तेरी अन्तरात्मा पवित्र बनेगी। पानी के द्वारा चाहे वह गङ्गा का हो या अन्यत्र किसी भी महातीर्थ से लाया गया हो उससे अन्तरात्मा पवित्र नहीं हो सकती। ___ श्रीकृष्ण जी ने लोकमूढ़ता का कितना स्पष्ट निषेध करके आत्मा की पवित्रता का सुन्दरतम श्रेष्ठ मार्ग प्रकट किया है। यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए विचारणीय है। जो मनुष्य मोह या अज्ञानजन्य स्थिति से अपने को दूर रख सकता है वही स्वधर्म (आत्मधर्म) को प्राप्त कर सकता है, अन्य नहीं। ३४। प्रश्न:-किं देवमूढताचिह्नं वद मे सिद्धये गुरो। हे गुरु! देवमूढ़ता किसे कहते हैं? मेरी इष्ट सिद्धि के लिए कृपा कर कहें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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