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________________ श्रावकधर्मप्रदीप देवमूढता का स्वरूप (वसन्ततिलका) सत्यार्थधर्मरहितो धनपुत्रहेतो मूर्खः कुदेवकुगुरोः शरणं प्रयाति। स्यान्मूढता भुवि यतो भ्रमणस्य हेतु १ःखप्रदा सपदि तस्य कुदेवतायाः।।३५।। सत्यार्थेत्यादि:- सत्यधर्मस्वरूपमविज्ञाय लौकिकधनपुत्रादिप्राप्त्यर्थं ये मूढाः सरागदेवानामाराधनां कुर्वन्ति-सा संसारपरिभ्रमणहेतुभूता दुःखदायिनी देवमूढ़ता स्यात् ।। ३५।। जिसने धर्म का सच्चा स्वरूप नहीं समझा वह मनुष्य संसार परिभ्रमण के लिए कारणभूत दुःखप्रदायिनी देवमूढ़ता का त्याग नहीं कर सकता। वह लौकिक लाभ के लिए अर्थात् धन की प्राप्ति अथवा पुत्र के लाभ आदि को इष्ट जानकर उनके निमित्त कुदेव और कुगुरु की शरण पकड़ता है। ___ भावार्थः- मनुष्य सदा से आदर्श का पूजक रहा है। यही कारण है कि जितने मत-मतान्तर संसार में प्रचलित हैं, रहे हैं या होंगे वे सब उस मतप्रवर्तक के आदेशानुसार अपने आदर्श को ईश्वर, जिनेन्द्र, यीशु, परमात्मा और खुदा आदि नामों से पूजते आ रहे हैं और पूजते रहेंगे। जिनमत-प्रवर्तकों ने किसी सर्वशक्तिमान् ईश्वर या मुक्तात्मा या आदर्श की सत्ता मानने से इंकार कर किया है। उनके अनुयायी यदि ईश्वर नहीं मानते तो कम से कम उस मत प्रवर्तक को ही अपना आदर्श मानकर पूजते आ रहे हैं। कुलपरम्परा द्वारा प्रचलित मान्यता के अनुसार चाहे जिसे 'देव' मानकर पूजना विज्ञता नहीं है। यह एक प्रकार का मोह है। मोहयुक्त पुरुष ही व्याकरण (शब्द शास्त्र) के अनुसार 'मूढ' शब्द द्वारा व्यवहत होता है। देव की मान्यता के सम्बन्ध में जो मोहपना है वह “देवमूढ़ता" है। सद्धर्म का खोजी ऐसी मूढ़ता का परित्याग करता है। वह अपना आदर्श ‘देव' उसे मानता है जिसमें देवपने के गुण हों। जो संसार के दुःखमय कंटकाकीर्ण मार्ग को पार कर चुका हो और दूसरों को भी अपने परीक्षित मार्ग को बता सके। जिसमें न किसी का पक्षपात हो और न किसी के प्रति द्वेष हो, किन्तु सामान्य तथा प्राणिमात्र का हितैषी हो। स्वयं सब प्रकार के दोषों से रहित हो। प्रत्येक बात का पूर्ण ज्ञाता और अनुभवी हो। उपर्युक्त गुण विशिष्ट आत्मा ही 'देव' 'ईश्वर' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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