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________________ श्रावकधर्मप्रदीप हो सकते। सद्धर्मपालक और प्रचारक या प्रभावक को निःस्वार्थी-सेवाभावी और प्रत्येक संभव उपाय के द्वारा स्व-परकल्याण करनेवाला होना चाहिए। ६४ आचार्य महाराज ने “स्वात्मतुष्ट " एक ही विशेषण द्वारा अपने हृदय की निःस्वार्थता व कर्त्तव्यपरायणता तथा हितैषिता का परिचय दिया है। सम्यक्त्व के ये आठों अंग सम्यक्त्व को परिपूर्ण व पवित्र बनाते हैं। बिना इन अंगों को पूर्ण किए सम्यग्दृष्टि अपने गुण में अपूर्ण है, और अपूर्णशक्तिवाला अपने उद्देश्य की प्राप्ति में असफल रहता है। अतः संसारोच्छेद के लिए पूर्णांग सम्यक्त्व पालन करना चाहिए । ३३ । प्रश्नः - लोकमूढत्वचिह्नं किं विद्यते मे गुरो वद । गुरो ! मूढ़तात्रयपरिहारः कर्तव्य एव सम्यग्दृष्टिना इत्येतत् श्रूयते किं तत्मूढतात्रयम्? इत्यत्रोत्तरयत्याचार्यः यल्लोकमूढता, देवमूढता, गुरुमूढता चेति मूढतात्रयं सम्यक्त्वदोषापादकमस्ति । शिष्यो वदति यत् किं लोकमूढतायाः चिह्नं स्वरूपमिति कृपया वद । श्रेष्ठ! तीन मूढ़ता का त्याग सम्यग्दृष्टि को करना चाहिए ऐसा सुना जाता है। वे मूढ़ताएँ कौन हैं? आचार्य कहते हैं कि लोकमूढ़ता और गुरुमूढ़ता ये तीन मूढ़ताएँ सम्यक्त्व में दोषोत्पादक हैं। तब शिष्य पूछता है कि हे गुरु! लोकमूढ़ता किसे कहते हैं? कृपाकर बताइए। आचार्य उत्तर देते हैं : (वसन्ततिलका) मोहादिमुक्तमनुजो लभते स्वधर्मं मूर्खो न सत्यपि सुवस्तुनि सौख्यदे हि । गङ्गावगाहनवशाद्वदतीति धर्मो लोकस्य तस्य भवदा भुवि मूढता स्यात् ।। ३४।। मोहादिमुक्तमनुजः स्वधर्मं लभते, किन्तु मूर्खः अनादिकालीनमिध्यात्वजनितसंस्कारवशाद्विषयविमूढः भ्रमबुद्धित्वात् सौख्यदे सुखदायिन्यपि सुवस्तुनि सत्यपि स्वधर्मं न लभते । स हि गङ्गावगाहनवशात् गङ्गायां गोदावर्यां यमुनायां नर्मदायां अन्यत्र वा क्वचित् समुद्रादिके अवगाहनवशात् शारीरिकस्नानमात्रादेव धर्मो भवतीति वदति । अतएव तस्य अज्ञानिजनस्य भुवि भवदा संसारावधिवर्धिनी लोकस्य मूढता लोकमूढता स्यात् || ३४ || अनादिकालीन मिथ्यात्व के उदय से जीवों को ऐसे संस्कार पड़े हुए हैं जिनके कारण पंचेन्द्रिय विषयों में विमूढ़ हो रहा है और इनके त्याग में असमर्थ होता हुआ सुखदायक सुमार्ग में नहीं चलता और न आत्महित को जानता है। सम्यग्दृष्टि सन्मार्ग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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