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________________ नैष्ठिकाचार गृहस्थों के लिए उपदेश दाता का पद सुशोभित भी नहीं होता और प्रभाव भी नहीं होता। यह पद तो आत्मशोधक पवित्र साधुओं के लिए जिन्होंने अपनी आत्मा को धर्म मार्गमय बना लिया है उनको शोभा देता है और उनका प्रभाव भी जनता पर पड़ता है, क्योंकि उन्होंने धर्म के लिए स्वार्थत्याग की कठोर साधना को साधा है। गृहस्थ के लिए तो “सेवा” का कार्य ही धर्मप्रचार का सच्चा उपाय है उससे उस गृहस्थ का भी उद्धार होता है, क्योंकि सेवा ही तो धार्मिकता का सच्चारूप है तथा जिनकी सेवा की जाती है उनको भी सेवा सन्मार्ग की ओर सम्मुख करती तथा असन्मार्ग से विमुख करती है। जनता में जो अज्ञान है उसे दूर करने और सम्यग्ज्ञान के प्रचार के लिए शिक्षालय खोलना, पुस्तके बाँटना, विद्यार्थियों को आर्थिक सहायता देना, विभिन्न रूप में ग्रन्थ प्रकाशित कर जिनवाणी का उद्धार करना ये सब धर्मोद्धार के कार्य हैं। इन सब सम्यक् उपायों से किये गये पवित्र धर्म के प्रचार के कार्य प्रभावनाङ्ग हैं । ३२ । (अनुष्टुप्) अष्टाङ्गलक्षणं प्रोक्तमेवं सम्यक्त्वशुद्धिदम् । श्रीमता स्वात्मतुष्टेन कुन्थुसागरसूरिणा ।। ३३ ।। ६३ एवमुक्तप्रकारेण सम्यक्त्वशुद्धिदं शुद्धिकारकं सम्यक्त्वस्य अष्टाङ्गलक्षणं अष्टानामपि अङ्गानां लक्षणं स्वात्मतुष्टेन स्वात्मगुणलाभेन तुष्टात्मना श्रीमता कुन्थुसागरसूरिणा कुन्थुसागरेण जैनाचार्येण प्रोक्तम् । ३३ । ऊपर लिखे प्रकार से सम्यक्त्व के अष्टांगों का सम्यक् वर्णन श्री परम पूज्य आचार्य श्री कुन्थुसागरजी महाराज ने किया है। यहाँ आचार्य महाराज ने अपने लिए “स्वात्मतुष्ट” विशेषण लगाया है। स्वात्मतुष्ट व्यक्ति वह होता है जो केवल अपने आप में अर्थात् अपने आत्मगुणों की प्राप्ति में ही संतुष्ट हो चुका हो, जिसे न तो लौकिक संपत्ति की लालसा है और न अपने कामों से अपनी कीर्ति की, सम्मान की, प्रतिष्ठा की और पूज्यता की इच्छा है। जो कार्य धन प्राप्ति के लिए किए जाते हैं या कीर्ति या सम्मान के लिए या किसी पद के लिए या अन्य किसी लौकिक लाभ के लिए किए जाते हैं उनके भीतर कोई दूसरी ही भावना काम करती है। वे मनुष्य सद्धर्म के सच्चे प्रचारक किसी भी हालत में नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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