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________________ ६२ श्रावकधर्मप्रदीप इसके लिए वह प्रत्येक सम्भव उपाय काम में लाता है, फिर भी वह धर्मान्ध नहीं होता। जैसा आजकल लोग अनेक सम्प्रदायवादी धर्मान्ध होकर लोगों को डराकर, धमका कर, लूटकर आग में जलाकर, बहू-बेटियों का अपहरण कर, येन केन प्रकारेण आतङ्क जमाकर, अपने सम्प्रदाय में सम्मिलित करना चाहते हैं। सम्यग्दृष्टि इस प्रकार अनीति कर निन्द्य पापमय पापप्रचारक उपायों को सर्वथा हेय मानता है। इन जघन्य कार्यों से प्राणियों की प्रवृत्ति पापमयी होती है। वे अहित के मार्ग में ही जाते हैं, हित के मार्ग में नहीं। ये सब काम पवित्र जैनधर्म के उद्देश्य से सर्वथा विपरीत हैं। अतः सम्यग्दृष्टि ऐसे कार्यों के करने की स्वप्न में भी इच्छा नहीं करता। धर्मप्रचार का मूलोद्देश्य जगत् के प्राणियों के कल्याण की कामना है। धर्म की उन्नति धार्मिक उपायों से ही हो सकती है, अधार्मिक उपायों से नहीं। सम्यग्दृष्टि को उचित है कि वह संसार के प्राणिमात्र की कल्याण की महती इच्छा को सामने रखकर परम पवित्र दुःखविमोचक जैनधर्म को संसार में फैलाने का सत्प्रयत्न करे। ये उपाय निम्न प्रकार के हैं : ____ निःस्वार्थ सद्धर्म का उपदेश देना, पाप या विपरीत प्रवृत्तियों के दोष दिखाना। दोष दिखाने में इस बात का ध्यान सदैव रखे कि इससे दोषी की निन्दा व्यक्ति या नामाङ्कित समष्टिगत न हो जाय। निन्दा से अपने उद्देश्य में बाधा पड़ती है और दोषवान् पुरुष सन्मार्ग से दूर रहता है, चिढ़ जाता है। इसलिए निन्दा का भाग छोड़कर धर्म की उत्कृष्टता और पाप की या मिथ्यात्व की अनुत्कृष्टता को जनता के गले उतारना चाहिए। ___सद्धर्म की प्रभावना का दूसरा उपाय है “सेवा”। वर्तमान युग का मानव उपदेश की कदर नहीं करता किन्तु “सेवा" की कदर करता है। किसी के बीमार होने पर, कष्ट में होने पर, आग लगने पर, दरिद्रता से पीड़ित होने पर और भयभीत होने पर क्रमशः औषधि, सेवा, उपसर्गनिवारण, अन्न वस्त्र या आजीविका के उपाय तथा आश्रय प्रदान और संरक्षण आदि करना “सेवा” है। सेवाभावी व्यक्ति अपने सदाचार से दूसरों को स्वयं आकर्षित कर लेता है। उस आकर्षण से ही उसे (सम्यग्दृष्टि को) अपने सद्धर्म प्रचार का सुन्दर स्वर्ण अवसर प्राप्त होता है। ईसाई धर्मप्रचारको ने धर्म प्रचार की इस प्रशंसनीय पद्धति को पूर्णरीत्या अपनाया है। सेवाभावी व्यक्ति अपने धर्म के स्वरूप का प्रतीक है-आदर्श है। उपदेश देने की अपेक्षा स्वयं उसका आचरण कर जनता के सामने आदर्श रखना कहीं अधिक श्रेष्ठ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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