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________________ नैष्ठिकाचार ६१ उनका अज्ञान दूर करता है और उनमें जिनशासन की प्रतिष्ठा करता है। इसे ही सम्यक्त्व का आठवाँ प्रभावनाङ्ग कहते हैं। भावार्थ:- आठ कर्मों में मोहनीय प्रधान है और मोहनीय में दर्शनमोह प्रधान कर्म है। दर्शनमोह का प्रधान भेद मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के प्रभाव से ही संसार में परिभ्रमण करने वाले ये सभी प्राणी अपने हित के मार्ग को भूले हुए हैं। मिथ्यात्व आत्मा को सम्यग्मार्ग से दूर करने वाली एक तरह की मदिरा है। मदिरापान करने वाला व्यक्ति नशा आने पर लौकिक सुख-दुःख, हित-अहित, इष्ट-अनिष्ट, पूज्य-अपूज्य और भोग्य-अभोग्य को नहीं जानता। उसकी क्या-क्या दशा होती है उसे बतलाने की आवश्यकता नहीं मालूम होती। सभी संसारी जन मदिरापान करनेवालों की दुर्दशा और उनकी अज्ञानजनित कार्य प्रणाली से परिचित हैं। मिथ्यात्ववशवर्ती जीव की भी यही हालत होती है। उसे विषयजन्य अवस्था में सुख मालूम होता है। कषायजन्य वैर में, पर के अपमान में, दूसरों को धोखा देने में और परधन नाश में सुख मालूम होता है। इसके विपरीत दूसरों को धनी देख उसे ईर्ष्या होती है; दूसरों के सन्मान में उसे दुःख होता है। किसी के साथ बैर हो और उसे कोई छुड़ाना चाहे तो वह छुड़ाने वाले को ही बुरा भला कहता है। विषय प्राप्त न हो तो अपने को भाग्यहीन मानता है। अपनी इन दुर्भावनाओं के कारण वह विषयसंगत्यागी दिगम्बरवेषी परमयोगी तपस्वी को देखकर हँसता है, उनकी निन्दा करता है। यह उन्हें अज्ञानी और अपने को ज्ञानी मानता है। उसकी वीतरागी सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्रतिपादित जिन मार्ग में विपरीत धारणा हो जाती है। जबतक उस मिथ्यात्वरूपी मदिरा का नशा उसे चढ़ा है उसकी बुद्धि ठिकाने नहीं है। सम्यग्दृष्टि का कर्तव्य है कि वह यह समझे कि मैंने बड़े भाग्य से इस अपनी दुरवस्था से अपना पिण्ड छुड़ा पाया है। अतः अपने दूसरे भाइयों का भी इस मिथ्याज्ञान से पिण्ड छुड़ा दूँ। अपने कर्तव्य के ज्ञान से सम्यग्दृष्टि अपने समान ही दूसरे बन्धुओं से सहोदर की तरह प्रीति करता हुआ उनकी भी दृष्टि को सम्यक् बनाने का प्रयत्न करता है। वह उन्हें घृणा की दृष्टि से नहीं देखता, उन्हें प्रेम की दृष्टि से देखता है और इसी से उन्हें मिथ्या गर्त से जो उनका अहित करनेवाला है उद्धार करना चाहता है। वह समझता है कि जैसे भी हो वैसे इन मिथ्यात्वग्रस्त बन्धुओं को सन्मार्ग पर लगाना है ताकि इनकी भ्रम बुद्धि दूर हो। इनमें परम कल्याणकारी जिन शासन की प्रतिष्ठा हो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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