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________________ श्रावकधर्मप्रदीप बढ़ाता है जब कि सम्यग्दृष्टि अपने भावों के निमित्त से होनेवाले पुण्यबन्ध के कारण संसार परिभ्रमण के मार्ग को नाश करनेवाले मुक्ति के मार्ग की ओर बढ़ता है। ____ अपेक्षाकृत मिथ्यादृष्टि के राग द्वेष की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि का रागभाव अत्यन्त ग्राह्य है। वह धर्म मार्ग की ओर प्रेरक होने से ही स्वयं धर्म मान लिया गया है। कारण में कार्य का उपचार न्याय संगत सिद्धान्त है। धर्मानुराग की बुद्धि से सम्यग्दृष्टि का यह पवित्रभाव ही सम्यग्दर्शन का वात्सल्य नामा सातवाँ अंग है। इस पवित्र प्रीति को वात्सल्य नाम इसलिए दिया गया है कि सिंह-व्याघ्र-मार्जारादि दुष्ट और हिंसक प्राणियों में भी अपने 'वत्स' के प्रति निश्छल प्रीति पाई जाती है। ऐसी निश्छल प्रीति सम्यग्दृष्टि को साधर्मी के प्रति अवश्य होती है। उसका यह आन्तरिक धर्मानुराग ही वात्सल्याङ्ग है।३१। प्रश्नः-प्रभावनाङ्गचिह्न किं वियते मे गुरो यद। हे गुरो! सम्यग्दर्शनस्याष्टमाङ्गस्य प्रभावनायाः किं स्वरूपमस्तीति मे कथय। हे गुरुदेव! कृपाकर सम्यक्त्व के आठवें प्रभावना अङ्ग का स्वरूप क्या है, कहिए। (वसन्ततिलका) मिथ्यात्वजांकुमतिदां भवदां कुविद्यां बोधामृतैर्भवहरैरपहृत्य शीघ्रम् । सर्वोपरित्वमिति यैर्जिनशासनस्य ___तोषां प्रभावनकृति वि दृश्यते हि।।३२।। मिथ्यात्वजामित्यादि:- सुगममेतत् । तात्पर्यमिदम्-अनादिकालतो मिथ्यादर्शनकर्मजनितभावेन नष्टबुद्धित्वात् स्वहितमनपेक्षमाणाः संसारावर्त्तवर्तिनः प्राणिनो वीतरागपरमेष्ठिनोपदिष्टे जिनशासने मिथ्याधारणं प्रकुर्वन्ति। शिवप्रदैर्ज्ञानामृतैः तां धारणामपहृत्य दूरीकृत्य येन केनापि सम्यगुपायेन जैनशासनस्य सर्वोपरिप्रचारः कर्तव्यः। सम्यग्दृष्टेरयमेव प्रचारः सम्यक्त्वस्य अष्टमं प्रभावनमङ्गं स्यात् ||३२।। अनादि काल से संसारी जीव मिथ्यात्व कर्म के वशीभूत हैं और इसी से उनका ज्ञान मिथ्याज्ञान हो रहा है, बुद्धि हित में नहीं जाती | वीतराग सर्वज्ञ भगवान् प्रतिपादित भी हित का उपदेश उन्हें अहित कर मालूम होता है। जैनधर्म के सम्बन्ध में वे सर्वथा विपरीत धारणाएँ कर बैठे हैं अथवा अज्ञानता के कारण जिन शासन का उन्हें बोध ही नहीं है। सम्यग्दृष्टि व्यक्ति जिस किसी भी उत्तम उपाय से कल्याणकरक धर्मोपदेश देकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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