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________________ नैष्ठिकाचार पवित्र स्नेह ने 'वात्सल्य' नाम ही प्राप्त कर लिया है। सम्यग्दृष्टि जीव का यह भी एक महान् गुण है। स्वर्ग और मोक्ष के लिए कारणभूत सम्यग्दर्शनादि गुणों के पालनेवाले अपने समान धर्मी प्राणियों में उसे वात्सल्य भाव उत्पन्न होता है, वह उनकी निःस्वार्थ निष्कपट सेवा के लिए सदा प्रस्तुत रहता है। सम्यक्त्वी का यह भाव ही 'वात्सल्य' नामा सातवाँ अंग माना गया है। भावार्थ:- इस अनादिकालीन रागद्वेषमय संसार में न राग करनेवालों की कमी है और न द्वेष करनेवालों की। पारमार्थिक दृष्टि से दोनों हेय हैं, मोक्षमार्ग के लिए बाधक हैं। क्रमशः जब कषायों का अभाव होता है तब अन्त में सूक्ष्म राग ही प्राणी को अटका लेता है, वह शेष रह जाता है तब उसके अभाव का भी प्रयत्न करना पड़ता है। भगवान् जिनेन्द्र का अन्तिम उपदेश यही है कि सर्वथा राग भाव छोड़ वीतराग बनो। इस पवित्र अवस्था की प्राप्ति सहसा नहीं होती। तब होती है जब पूर्ण संयम सात्मीभाव को प्राप्त हो जाय। उसके पहिले राग-द्वेष रहते हैं किन्तु उस पूर्ण संयम की प्राप्ति के लिए उन्हें क्रमशः त्याग का अनिवार्य है। त्याग का क्रम यह है कि सम्यग्दृष्टि सबसे प्रथम वैर भाव का त्याग कर प्राणिमात्र में मित्रपने जैसे राग भाव की प्रतिष्ठा करता है। सब जीवमात्र को अपना मित्र मानता है। किसी को शत्रु नहीं मानता। दुःखी जीवों को देखकर अत्यन्त दयार्द्र होता है, उदारता पूर्वक उनकी सहायता करता है। इतना साम्यभाव होते हुए भी वह धर्मात्मा गुणवान जीवों को देखकर परम हर्ष को प्राप्त होता है। वह उनके गुणों में आसक्त होता है और सदा उनकी मङ्गल कामना करता है। उन्हें किसी प्रकार भी दुःखी होते हुए देखकर उसे ठेस पहुंचती है। अतः वह अनेक कष्टों को सहकर भी साधर्मी के दुःख को दूर करता है। इस कष्ट सहने में उसे आनन्द का अनुभव होता है, वह इस भावना के कारण सन्तुष्ट रहता है कि मैं अपना कर्तव्य पूरा कर रहा हूँ। सम्यग्दृष्टिऔर मिथ्यादृष्टि दोनों राग-द्वेष के कारण बेचैन रहते हैं फिर भी उनकी बेचैनी में जमीन आसमान जैसा अन्तर है। मिथ्यादृष्टि किसी से बदला लेने के लिए जितना बेचैन रहता है, सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा पुरुष की सेवा जब तक नहीं कर पाता तब तक उतना ही बेचैन रहता है। दोनों बेचैन बंध की कारण हैं। मिथ्यादृष्टि के पाप का बंध होता है जिससे नरकादि गति जन्य दुःखों का मार्ग खुलता है और सम्यग्दृष्टि पुण्य का बंध करता है जिससे उत्तम मानव और स्वर्गगति में होनेवाले सुखों का मार्ग खुलता है। मिथ्यादृष्टि अपने भावों के निमित्त से होनेवाले पाप-बंध के कारण अपना संसार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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