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________________ ५८ श्रावकधर्मप्रदीप और उसमें उन्नति कर सके, वही सहायता वांछनीय है। उसे करना ही स्थितीकरण है। शीत की बाधा सहित मुनि को वस्त्र पहिनाना, रोगी संयमी को अपवित्र औषधियों का दान करना, इत्यादि प्रकार की सेवा सेवा नहीं, पाप है। इस सेवा से संयमी धर्म में स्थिर नहीं होता किन्तु अधिकाधिक असंयमी बनता है, अतः ऐसी सेवा को निंद्य माना है। इतना ही नहीं, यह पापोत्पादक है उस भक्त को भी दुर्गति का कारण है और संयमी को भी। अंतः विवेक के साथ ही सेवा करना स्थितीकरण है। यदि संयमी अत्यन्त क्लिष्ट होकर संयम बिगाड़ने की स्थिति में हो या ऐसी सेवा चाहता हो तो उसे सदुपदेश सद्दृष्टांत देकर धर्म में स्थिर करना चाहिए। यदि वह उपदेश को ग्रहण न करे और फिर भी भ्रष्ट हो तो उसे संयमी भेष त्याग देने को बाध्य करना चाहिए, ताकि अन्य संयमी भी उसका अनुकरण न करें। ऐसा करना भी स्थितीकरण है। स्थितीकरण अपने यथार्थ अर्थ में वहीं है जहाँ येन केनाप्युपायेन संयमी को संयम के मार्ग में ही पुनः लौटा दिया जा सके ।। ३० ।। प्रश्नः - वात्सल्याङ्गस्वरूपं किं वदास्ति में गुरो मुदा । हे गुरो ! सम्यग्दर्शनस्य सप्तमाङ्गस्य वात्सल्यनाम्नः किं स्वरूपमस्तीति मुदा में कथय । सम्यग्दर्शन के सातवें वात्सल्य अंग का स्वरूप हे गुरु! कृपा कर कहिए । (वसन्ततिलका) त्यक्तो मिथः कलिकरो भुवि येन भावः स्वर्मोक्षमार्गनिरतस्य गुणानुरागात् । निःस्वार्थतो हि शिवदा क्रियते सुसेवा वात्सल्यभाव इति तस्य भवेत् पवित्रः । । ३१ ।। त्यक्त इत्यादिः - मिथः परस्परं कलिकरः कलहोत्पादकः भावः येन त्यक्तः वात्सल्यं प्रीतिरित्यर्थः। यथा मातुर्वत्से प्रीतिरुत्पद्यते तद्दर्शनमात्रेणैव तथैव स्वर्मोक्षमागनिरतस्य गुणानुरागात् दयादाक्षिण्यसाम्यभावज्ञानादिगुणानामनुरागात् परा प्रीतिरुत्पद्यते सम्यग्दृष्टेः । स तु केवलं स्वधर्मबुद्ध्या लौकिकस्वार्थविरहितया तेषामप्रतिमकल्याणदायिनीं सेवां करोति । उक्तप्रकारेण सधर्मिषु साधिकप्रीतिभाव एव वात्सल्याङ्गमस्ति। ३१। संसार में प्रत्येक प्राणी एक दूसरे से प्रीति करते हैं। उन सबमें माता और पुत्र की प्रीति पवित्र, निश्छल और निःस्वार्थ मानी गई है। माता का कोई स्वार्थ वत्स की रक्षा नहीं होता। वह कपटरहित परम स्नेह भाव से उसका पालन-पोषण करती है। इसलिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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