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________________ १८ श्रावकधर्मप्रदीप जो न खड़ी हो, ऐसी परम दृढ़ निश्चल संसार भ्रमण को छेद देनेवाली जिसे श्रद्धा है उसी के मुक्तिफल देनेवाला प्रथम “निःशंकित" नामा सम्यक्त्व का गुण होता है।२३।२४। प्रश्न:-निष्कांक्षितस्य चिह्नं किम् ? सिद्ध्यै स्याद् वद मे गुरो। हे गुरो! द्वितीयाङ्गस्य निष्कांक्षितनाम्नः किं स्वरूपं स्याद् इति मे स्वात्मज्ञानसिद्ध्यै वद । हे गुरुदेव! सम्यक्त्व के दूसरे निष्कांक्षित नामा गुण का क्या स्वरूप है वह मेरी आत्मा के बोध की सिद्धि के लिए कृपाकर कहिए __ (अनुष्टुप्) आदौ मध्येऽप्रिये चान्ते दुःखदे कटुके हृदि । क्षणिके स्वात्मबाह्ये हि निन्द्येऽग्राह्ये परोद्भवे ।।२५।। परित्याज्येऽक्षसौख्येनास्था कांक्षा यस्य दुःखदा। निष्कांक्षिताङ्गमेवापि तस्य स्यान्निर्मलं प्रियं ।।२६।। आदावित्यादि:- संसारिणः प्राणिनः इद्रियोत्पन्नसुखेषु मग्नाः सन्त्यनादित एव न ते स्वात्मानस्सुखमनुभवन्ति किन्तु मिथ्यात्वभावभ्रमभ्रमिते सत्युनिद्रज्ञानचक्षुषः सम्यग्दृशः तत्र सम्यग्ज्ञानं जायते। स हि पश्यति यत् आदौ मध्येऽन्ते चाप्रिये दुःखदे हृदि कटुके क्षणिके स्वात्मबाह्ये अतएवाक्षसौख्ये दुःखमेव वर्तते।न तत्सुखम् स्वोत्त्थम्, अपितुशुद्धचैतन्यस्वरूपात्मविरुद्धपुद्गलादिभिः समुत्थम् अतएव परोद्भवं परसंयोगकालमात्रस्थायि निन्दनीयं सतामग्राह्यं परित्याज्यं चास्ति न तद्ग्रहणे सम्यग्दृशः दुःखदा कांक्षा अस्ति। इदमेव निष्कांक्षितं नाम निर्मलं प्रियं इष्टं सम्यक्त्वस्य अङ्गं अस्ति।२५।२६। संसारी प्राणी अनादि काल से ही इन्द्रिय सुखों को ही सुख समझकर उनके प्राप्त करने का ही प्रयत्न करते आये हैं। आत्मिक सत्यार्थ सुख का उन्हें कभी अनुभव नहीं हुआ। जब तक मिथ्यात्वकर्म के उदय से भ्रमबुद्धि है-तब तक आत्मिक सुख का अनुभव प्राप्त हो भी नहीं सकता है। जब मिथ्यात्व भाव स्वयं मिट जाता है और ज्ञानरूपी चक्षु मोहरूपी निद्रा से रहित हो जाते हैं तब उस प्राणी की दृष्टि निर्मल हो जाती है और उस सम्यग्दृष्टि को संसार के सुख को उत्पन्न करनेवाले इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों के संग्रह करने में और उनका भोग करने में रुचि उत्पन्न नहीं होती। इन्द्रिय जन्य सुख आत्मा से उत्पन्न नहीं हुआ बल्कि इन्द्रियों को पुद्गल पदार्थों के निमित्त से हुआ है। वह परसे उत्पन्न पर पदार्थ के संयोग काल तक ही रह सकनेवाला सुख निन्दनीय है। सज्जनों के लिए ग्रहण करने योग्य नहीं है इसलिए सम्यग्दृष्टि को उसकी इच्छा ही नहीं होती। यह विषयभोग की अनिच्छा ही सम्यग्दर्शन का दूसरा निष्कांक्षित नामा अंग है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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